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________________ 121 अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग कारणों से उद्भूत जीव की चैतन्य युक्त अवस्था उपयोग प्ररूपणा है । इसके ज्ञानोपयोग और दर्शनापयोग ये दो भेद हैं । ज्ञानोपयोग के मति आदि 4 सम्यग्ज्ञान और 3 मिथ्याज्ञान मिलकर 8 भेद हैं । दर्शनोपयोग के चक्षु-अचक्षु, अवधि और केवल दर्शन ये चार भेद हैं । इस तरह 12 भेदों से संयुक्त उपयोग जीव का चिरकाल व्यापी लक्षण है। उपरोक्त 20 प्ररुपाणाओं में आबद्ध जीवतत्त्व सभी तत्वों के प्रधान है । पञ्चम मयूख प्रस्तुत मयूख में चैतन्यरहित, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, और सम्यक्त्व विहीन अजीव तत्त्व का सूक्ष्म निदर्शन है अजीव तत्त्व के पाँच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। पुद्गल के लक्षण, पर्याय, भेद (अणु और स्कन्ध) परमाणु एवं स्कन्ध का लक्षण तथा उसके तैयार होने की विधि का गहन विश्लेषण अभिव्यञ्जित हुआ है । जिसका आशय यह है कि जीव के शरीरादि की रचना करना पुद्गल का कार्य है, इसी प्रकार जीव के लिए सुख-दुःख और जीवन-मरण की परिस्थितियाँ भी पुद्गल के सहयोग से ही निर्मित होती हैं। __धर्म एवं अधर्म स्वेच्छा से चलने वाले जीव और पुद्गलों के चलने में जो सहायक है, वह धर्मद्रव्य कहलाता है तथा जो जीव एवं पुद्गलों को रोकने में सहायक होता है । उसे आचार्यों ने अधर्मद्रव्य कहा है । ये दोनों द्रव्य, लोक में सर्वव्याप्त, अमूर्तिक, अविनाशी एवं असंख्यात प्रदेशों से संयुक्त हैं । आकाश द्रव्य जहाँ जीवादि पदार्थ हमेशा स्थिर रहते हैं, वही आकाश है । वह आदिअन्त विहीन, रूपादि से रहित, एक अखण्ड अमूर्तिक एवं लोकालोक में व्याप्त हैं। कालद्रव्य - कालद्रव्य एक प्रदेशी, शाश्वत, स्थायी, अमूर्तिक, वर्तना लक्षण से युक्त है । वह घड़ी, घण्टादि भेदों में विभक्त है । उपरोक्त 6 द्रव्यों में जीव अनन्त हैं । जो द्रव्य के आश्रित है एवं अन्यगुणों से रहित होता है उसे गुण कहते हैं । द्रव्य की क्रम से होने वाली अवस्थाएँ पर्याय कही जाती हैं। अस्तिकाय का लक्षण निरूपित करते हैं कि जो द्रव्य अस्तिरूप रहते हुए भी काय अर्थात शरीर की भाँति बहुप्रदेशी होते हैं उन्हें अस्तिकाय कहते हैं । जीवादि पाँच पदार्थ अस्तिकाय के अन्तर्गत समाविष्ट किये जाते हैं । किन्तु काल द्रव्य अणुरूप होने के कारण अस्तिकाय के अन्तर्गत नहीं आता ।। षष्ठ मयूख ___ आस्रव तत्त्व का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए पण्डित जी अपनी सरस एवं भावानुवर्तिनी शब्दावली में लिखते हैं - "येनास्रवन्ति कर्माणि जलान्यात्मजलाशये । आसवः स च संप्रोक्तो निर्गतास्रवबन्धने ॥” भावार्थ यह है कि आस्रव के द्वारा ही जीव (आत्मा) कर्मों की ओर प्रेरित होता है, उसे बन्धविहीन भी कहा गया है । आत्मा के भावों के अनुसार ही आस्रव के शुभ और अशुभ ये दो भेद किये जाते हैं । कषाय से युक्त जीवों का आस्रव साम्परायिक है । इसमें पाँच इन्द्रियाँ, चार कषाय, पच्चीस क्रियाएँ और पाँच अव्रत सम्मिलित हैं। कषाय से रहित | जीवों का ईर्यापथ आस्रव होता है । यह भेद रहित हैं ।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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