________________
120
औदारिक, मिश्र तथा वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र ये भेद होते हैं । इस तरह योगमार्गणा में उसके लक्षण एवं भेदों-प्रभेदों का निरूपण किया गया है । वेदमार्गणा के अन्तर्गत द्रव्यवेद और भाववेद का तथा उनके परिणामों का निरूपण है । वेदकर्म के उदित होने पर जीव सम्मोह से यक्त होता है. इसी कारण गण-दोष को नहीं जान पाता । कषायमार्गणा का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि आत्मा से सम्यक्त्व एवं चारित्र आदि गुणों को कषाय तिरोहित करता है । क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये कषाय के चार रूप हैं । कषायमार्गणा के अन्य भेदों पर भी प्रकाश डाला गया है । कषायरहित व्यक्ति ही सुखी कहा गया है । संसारसागर के पार करने वाला मिथ्यात्व की निशा को नष्ट करने वाला मुनियों के हृदय कुमुदों को | प्रफुल्लित करने वाला ज्ञान सभी मनुष्यों की श्रद्धा का विषय है । तात्पर्य यह है कि ज्ञान सर्वोत्कृष्ट है । जिनागम में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्याय ज्ञान तथा केवलज्ञान (5ज्ञान) उल्लिखित हैं । केवल ज्ञान को छोड़कर शेष चारों ज्ञान क्षायोपशमिक हैं तथा केवल ज्ञान क्षायिक ज्ञान है । इनका विस्तृत विवेचन ग्रन्थ में किया गया है P कषायों को रोकना, इन्द्रियों को वश में करना, मन, वचन-काय पर नियन्त्रण रखना, व्रतों का पालन करना संयम है । सामायिक छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्यराब एवं यथाख्यात ये पाँच संयम कहे गये हैं । पृथ्वी पर जो षटकायिक जीवों की हिंसा एवं इन्द्रियों व्यापारों में आसक्त, होते हैं, उन्हें असंयमी कहते हैं ।
दर्शन मार्गणा के संबन्ध में रचनाकार का मन्तव्य है-सभी पदार्थों को सामान्य रूप से ग्रहण करना दर्शन है-यह पदार्थों के अस्तित्व को ही ग्रहण करता है । चक्षु दर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधि दर्शन और केवलदर्शन हैं । किन्तु केवलदर्शन ही शाश्वत माना गया है ।
लेश्यामार्गणा के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं कि जीवों द्वारा किये गये कर्मों की कारण भूत लेश्या है । लेश्या कर्मों के चतुर्विध बन्ध को करती हैं । द्रव्यलेश्या और भावलेश्या ये मुख्य हैं किन्तु दोनों के कृष्ण, नील. कापोत, पीत, पद्म शुक्ल ये 6 भेद किये गये हैं। गुणस्थानों में लेश्याओं का विभाग करने के उपरांत कहते हैं कि लेश्याओं से ग्रसित जीव, संसार भंवर में फंसकर कर्मों को करते हुए हमेशा दुःखी रहते हैं ।
भव्यत्व के सन्दर्भ में कहते हैं कि सम्यग्दर्शनादि भावों के संयुक्त जीव भव्य है। एवं इन भावों से रहित जीव अभव्य हैं । इन दोनों में जो भाव से बहिभूर्त है एवं सम्यग्ज्ञान से शोभित है, वे वन्दनीय हैं।
सम्यक्त्वमार्गणा जीवादिजीव सप्त तत्त्वों में श्रद्धा करना सम्यक्त्व है जैनदर्शन में सम्यक्त्व के तीन भेद विश्रुत हैं- क्षायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक । सम्यग्दर्शन से पतित होकर भी जीव जिसके कारण मिथ्यात्व में लिप्त नहीं हो पाता, वह सासादन सम्यग्दृष्टि है। मिश्र और मिथ्यादृष्टि का भी समीचीन निरूपण किया गया है । जो जीव मन के आलम्बन से सदैव शिक्षा, क्रिया आलांपादि उपायों को स्वीकार करता है, उसे ज्ञानियों ने संज्ञी कहा है । असंज्ञी इन गुणों के विपरीत है । जो जीव इन दोनों के व्यवहार से मुक्त एवं आत्मीय | आनंद का भोगता है उसे, अनिर्वचनीय अर्हन्त ही जानना चाहिये।
आहार-मार्गणा के अन्तर्गत आहार का लक्षण और आहारक एवं अनाहारक जीवों का प्रतिपादन दर्शाया गया है । समुद्घात का लक्षण और उसके सात भेद भी अत्यन्त महत्व | रखते हैं P" मूल शरीर को न छोड़कर जीव जब आत्मप्रदेशों में बाहर फैलता है, वह समुद्घात कहलाता है।