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से गौरवान्वित किया था। माता-पिता बचपन में स्वर्गवासी हो गये थे । एक भाई और एक बहिन सहित आश्रय रहित होकर आप अपने मामा के घर गयी । वहीं आपका लालनपालन हुआ। आर्यिका ज्ञानमती के सम्पर्क में आकर आपने सोलह वर्ष की अवस्था में ही ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया था । संवत् 1212 में माधोराजपुरा में आचार्य वीरसागरजी से क्षुल्लिका दीक्षा तथा संवत् 2019 में सहकर में आचार्य शिवसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की थी । आप चारित्रशुद्धिव्रत करती हैं 37
“शिवाष्टक स्तोत्र' "38 आपकी एक स्फुट रचना है । इस रचना में 10 पद्य हैं। आदि और अन्तिम अनुष्टुप छन्द में तथा शेष पद्य शिखरिणी छन्द में है ।
आपने शिवसागर महाराज को मूल सङ्घ का चन्द्रमा बताकर उन्हें आचार्य वीरसागर का शिष्य तथा नेमिचन्द्र का पुत्र बताया है
सुशिष्यो वीरसिन्धोर्यो मूलसङ्घस्य नेमिचन्द्रात्मजः सूरिः स्तुवे तं
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आचार्य को अपना नयन पथगामी होने की कामना करते हुए आर्यिका जिनमती जी आचार्य श्री की विद्वत्ता मुनियों द्वारा मान्य बताई है । वे कृश काय थे, उनके संघ में अनेक यति थे, जन-जन में जैन मार्ग में सुखकारी रुचि उत्पन्न करते थे । इन भावों को माता जी ने इन शब्दों में व्यक्त किया है।
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चन्द्रमाः ।
शिवसागरम्
यदीयं सूरित्वं जगति विदितं सर्वमुनिभिः, कृशाङ्गः सङ्क्षेयः धरति सुविशालं यतिगणम् । रुचिर्मार्गे जैने नयति जनतां या सुखकरं, शिवाचार्यः सो यं नयनपथगामी भवतु मे ॥ ( 1 )
शेष अन्य पद्यों में भी इसी प्रकार आचार्य के गुणों का उल्लेख किया गया है।
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क्षुल्लिका राजमती माता जी
जीवन आपका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था । आप मुनि जम्बुसागरजी की पूर्व अवस्था की धर्मपत्नी हैं। पूज्य मुनि श्री का सम्पर्क प्राप्त करते रहने से उनसे प्रभावित होकर आपने पूज्य पायसागर महाराज से क्षुल्लक दीक्षा ली थी । आप पूजा-पाठ, विधि विधान बराबर कराती रहती हैं । 139
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रचना
आपकी एक रचना आचार्य शान्तिसागर महाराज के सम्बन्ध में प्रकाशित हुई है । 140 इस रचना में अनुष्टुप् छन्द में निर्मित नो श्लोक हैं। दो श्लोक उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत हैं।
क्षु. राजमती जी आचार्य शान्तिसागर जी की परम भक्त ज्ञात होती हैं । आपने अपनी रचना में आचार्य श्री की सर्प सम्बन्धी घटना का उल्लेख भी किया है। गले में लिपटकर और सिर पर फण फैलाकर सर्प के स्थित हो जाने पर भी धीर वीर आचार्य विचित नहीं हुए थे । वे महान् ओजस्वी, ध्यानी और ज्ञानी थे । यह प्रसङ्ग निम्न प्रकार वर्णित है - - वैष्टितं कार्य धीरं वीरं महौजस
उरग
स्थिरासनम् । महाध्यानी ज्ञानसाम्राज्यभास्करम् ॥ (7)
अन्तिम पद्य में माता जी ने अपने नाम एवं पद का उल्लेख करते हुए मनसा वाचा कर्मणा विशुद्धिपूर्वक आचार्य श्री को नमन किया है