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प्राक्कथन
प्रख्यात जैन सिद्धक्षेत्र "कुण्डलपुर" सघन वृक्षों की विरामदायिनी, मनोरम छाँव और नयनाभिराम दृश्यों से परिपूर्ण कुण्डलाकार उत्तुंग श्रृंग पर अवस्थित श्रीधर केवली के पावन चरण चिह्नों का प्रतीक तपोवन है । इसी सिद्ध क्षेत्र के सन्निकट ग्राम मड़िया देवीसींग मेरी जन्मभूमि है । शैशवावस्था से ही देवाधिदेव "बड़े बाबा" के पावन दर्शन, तीर्थवन्दन, साधुसमागम और विद्वद्-विनोद के सुयोग जाने-अनजाने में भी मेरे मानस में श्रमण संस्कृति और वाङ्मय के उदात्त रूप का प्रभाव अंकित करते गये । सन् 1981 में दमोह के शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के नियमित विद्यार्थी के रूप में बी. ए. परीक्षा प्रथम श्रेणी से संस्कृतसाहित्य और सामान्य विषय लेकर उत्तीर्ण करने के उपरान्त सागर विश्वविद्यालय से 1983 ई. में संस्कृत विषय की स्नातकोत्तर परीक्षा, प्रावीण्य-सूची में प्रथम स्थान सहित, प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करते ही मुझे श्रद्धेय गुरुवर डॉ. भागचन्द जी जैन "भागेन्दु" के सान्निध्य में अध्यापन का सुअवसर सुलभ हुआ । पूर्व संस्कार और वर्तमान सत्सान्निध्य तथा तीर्थराज कुण्डलपुर पर चातुर्मास के निमित्त से दो-दो वर्षा-योगों में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य विद्यासागर जी मुनि-राज के प्रातिभ व्यक्तित्व से मैंने यह अनुभव किया कि अपनी-आगामी अध्ययन यात्रा के लिये ऐसा विषय चयन करूँ, जो आधुनिक युगीन चिन्तन, साहित्य और संस्कृति को इतिहास की धरा से सम्पृक्त कर सके । मेरी इस अवधारणा को मूर्तरूप प्रदान किया शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दमोह के संस्कृत विभागाध्यक्ष माननीय डॉ. भागचन्द जी जैन "भागेन्दु" ने । फलतः मैंने उन्हीं के निर्देशन में "संस्कृत काव्य के विकास में बीसवीं शताब्दी के जैन मनीषियों का योगदान"- विषय पर अपनी-"पी. एच. डी." उपाधि हेतु अनुसन्धान कार्य का प्रस्ताव विश्व विद्यालय की शोधोपाधि समिति के समक्ष प्रस्तुत किया और समिति ने मेरा प्रस्ताव स्वीकार भी किया ।
राष्ट्र के ग्रन्थकारों, मनीषियों, प्रकाशकों और जैन अध्ययन केन्द्रों से अनेकशः पत्राचार/ सम्पर्क किया । प्रारम्भ में मुझे ऐसा अनुभव सा हुआ कि कदाचित् इस विषय पर पर्याप्त सामग्री सुलभ नहीं हो सकेगी । किन्तु कुछ ही समय में मेरा भ्रम दूर हो गया, प्रचुर सामग्री सुलभ हुई । कार्य आगे बढ़ा । सामग्री सुलभ कराकर प्रोत्साहित करने में परम पूज्य आचार्य विद्यासागर जी मुनि महाराज के संघस्थ शिष्य श्री 105 ऐलक अभय सागर जी महाराज ने भी महनीय भूमिका का निर्वाह किया है । किन्तु कर्मयोग से मेरी आर्थिक विपन्नता ने पंजीकृत विषय को इतः प्राक् सम्पादित करके प्रस्तुत कर देने में नानाविध असहयोग किया ।
"प्रस्तुत शोध प्रबन्ध"- प्रस्तुत शोध प्रबंध को छह अध्यायों तथा एक परिशिष्ट में विभक्त किया है । प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के - प्रथम अध्याय
में संस्कृतसाहित्य का अन्तः दर्शन विश्लेषित करते हुए इस अध्याय को दो भागों में विभाजित किया है।