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________________ 80 आचार्य श्री विद्यासागर जी अज्ञान परीषह का अस्तित्व और प्रभाव समझाते हुए मुनि जीवन में उसे सहन करने की प्रेरणा भी प्रदान करते हैं । यह अज्ञानी है, पशुवत् है, कुछ भी नहीं जानता इत्यादि अपमान युक्त वचन निरन्तर सहज करते हुए जिसको मानसिक क्लेश भी उत्पन्न नहीं होता, उस तपस्वी साधु के इस गाम्भीर्य को अज्ञान परीषह जय कहा गया है । ग्रन्थकार का मन्तव्य है कि साधुजन मन का मैल धोने के लिए और अक्षय सुख (चरम सुख) पाने के लिए अज्ञान परीषह सहते हैं और साधुत्व को सार्थक बनाते हैं। अज्ञान परीषह जय करने की प्रेरणा प्रदान करते हुए ग्रन्थकार अभिव्यक्त करता है - "परिषहोस्तु निजानुभविश्रुतं, ह्यपमितं शिवदं बुधविश्रुतम् बहुतरं तु तृण सहसाप्यलं, दहति चाग्निकणी भुवि साप्यलम्' सदो सदा अज्ञान परीषह नियोग है यह शिव मिलता, अल्पज्ञान पर्याप्त रहा यदि निज अनुभवता भव टलता बहुत दिनों का पड़ा हुआ है सुमेरुसम तृणढेर रहा, एक अनल की कर्णिका से बात ! जल मिटता क्षण देर रहा । जैन नियमों से प्रभावित मुनि इन्द्रिय जन्य सुखों से वंचित रहता है और निर्वाण सुख की प्राप्ति के लिए अदर्शन परीषह को धैर्यतापूर्वक सहता है । अपने वैराग्य, धर्म, तप, दीक्षा और महिमा के संबध में जो अहंकार वृत्ति या अभिमान का भाव पल्लवित नहीं होने देते तथा सम्यग्दर्शन की महिमा के योग से निर्मल हृदय होते हैं वे ही अदर्शन परीषह जय करते हैं । आचार्य श्री ने उद्घोष किया है - ऐसे यतियों का जीवन जिनमत की उन्नति के लिए समर्पित रहा है - जिनमतोन्नति-तत्पर-जीवनं, विमल दर्शनवत् यतिजीवनम् । भवतु वृत्तवतां खलु वार्पितः परिजयोस्तु यदेष समर्पितः ।। ऋषिजन-पदपूजन, सम्पत्ति, विपत्ति, निन्दा, स्तुति, अपयश आदि से अप्रभावित रहते हुए दुस्सह सभी परीषहों को सहन करने में सक्षम होते हैं । परीषह-जय के बिना उनकी तपस्या सफल नहीं मानी जा सकती। उपर्युक्त विविध परीषहों का भावपूर्ण काव्यमयी, पृष्ठभूमि में चित्रण किया है। ग्रन्थ के अन्त में आचार्य श्री आत्मा का अवलोकन करने की अपनी दीर्घ कालीन अभिलाषा प्रकट करते हैं तथा ऐश्वर्य से प्राप्त सुखों के प्रति विरक्ति प्रदर्शित करते हैं वे तन-मन-वचन से अविद्या को परित्यक्त करने का सङ्कल्प लेते के पश्चात् कहते हैं - "ज्ञानसिन्धु को मथकर पीऊँ समरस विद्या प्याला है" Fs जैन सिद्धान्त के अनुसार शान्ति परिषह और उष्ण परिषह ये दोनों एक समय में नहीं होते अर्थात् इनमें से एक ही एक काल में हो सकता है । इसी प्रकार चर्या शय्या, निषद्या इन तीनों में से एक समय में एक ही होता है । इस प्रकार (शीत, उष्ण में से एक परीषह शेष बचता है और चर्या, शय्या निषधा में से 2 शेष बचते हैं ये शेष बचे हुए तीन परीषह कम हो जाने से उन्नीस परीषह एक समय में मुनियों के हो सकते हैं, इससे अधिक नहीं यहाँ पर यह आशय निकलता है कि एक साथ एक ही समय में एक मनुष्य (ऋषि) के एक से लेकर उन्नीस परीषह तक हो सकते हैं। अतः मुनि जीवन के परीषहों की समीचीन
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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