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लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि नैतिक दृष्टि से वह व्यक्ति को अपनी स्थिति के अनुसार कर्त्तव्य करने का उपदेश देता था, अन्यथा वह स्वयं भी नग्न रहना आदि देह-दण्डन को क्यों स्वीकार करता? जिस प्रकार बाद में गीता में अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार कर्तव्य करने का उपदेश दिया गया था वर्तमान युग में भी ब्रेडले ने (My Station and its duties) समाज में अपनी स्थिति के अनुसार कर्त्तव्य करने के नैतिक सिद्धान्त को प्रतिपादित किया, उसी प्रकार वह छः अभिजातियों' (वर्गों) को उनकी स्थिति के अनुसार कर्त्तव्य करने का उपदेश देता होगा और यह मानता होगा कि आत्मा अपनी अभिजातियों के कर्त्तव्यों का पालन करते हुए स्वतः विकास की इस क्रमिक गति में स्वभावतः आगे बढ़ता रहता है।
पारमार्थिक दृष्टि से या तार्किक दृष्टि से नियतिवादी विचारणा का चाहे कुछ मूल्य रहा हो, लेकिन नैतिक विवेचना में नियतिवाद अधिक सफल नहीं हो पाया। नैतिक विवेचना में इच्छा-स्वातंत्र्य (Free-will) की धारणा आवश्यक है, जबकि नियतिवाद में उसका कोई स्थान नहीं रहता है। फिर दार्शनिक दृष्टि से भी नियतिवादी तथा स्वतः विकासवादी धारणाएं निर्दोष हों, ऐसी बात भी नहीं हैं। नित्यकूटस्थ-सूक्ष्म-आत्मवाद
बुद्ध का समकालीन एक विचारक पकुधकच्चायन आत्मा को नित्य और कूटस्थ (अक्रिय) मानने के साथ ही सूक्ष्म मानता था। ब्रह्मजालसुत्त के अनुसार उसका दृष्टिकोण इस प्रकार का था
___ सात पदार्थ किसी के.... बने हुए नहीं हैं (नित्य है), वे तो बन्ध्य कूटस्थ.... अचल हैं।.... जो कोई तीक्ष्ण शस्त्र से किसी का सिर काट डालता है, वह उसका प्राण नहीं लेता बस इतना ही समझना चाहिये कि सात पदार्थों के बीच अवकाश में उसका शस्त्र घुस गया है।
इस प्रकार इस धारणा के अनुसार आत्मा नित्य और कूटस्थ तो थी ही साथ ही वह सूक्ष्म और भी थी। पकुधकच्चायन की इस धारणा के तत्व उपनिषदों तथा गीता में भी पाये जाते हैं। उपनिषदों में आत्मा को जो, सरसों या चावल के दाने से सूक्ष्म माना गया है तथा गीता में उसे अक्केद्य, अवलेहय कहा गया है।
सूक्ष्म आत्मवाद की धारणा भी दार्शनिक दृष्टि से अनेक दोषों से पूर्ण है। अतः वाद में इस धारणा में काफी परिष्कार हुआ है। महावीर का आत्मवाद
यदि उपर्युक्त आत्मवादों का तार्किक वर्गीकरण किया जावे तो हम उसके छः वर्ग बना सकते हैं
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान