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निष्क्रिय आत्म विकासवाद एवं नियतिवाद
आत्म अक्रियवाद या कूटस्थ-आत्मवाद की एक धारा नियतिवाद थी। यदि आत्मा अक्रिय है एवं कूटस्थ है तो पुरुषार्थवाद के द्वारा आत्म-विकास एवं निर्वाण-प्राप्ति की धारणा को नहीं समझाया जा सकता।
मक्खली पुत्र गौशालक-जो आजीवक सम्प्रदाय का प्रमुख था-पूर्ण कश्यप की आत्म-अक्रियतावाद की धारणा का तो समर्थक था लेकिन अक्रिय आत्मवाद के बंधन में आने के कारण एवं आत्म-विकास की परम्परा को व्यक्त करने में असमर्थ था। अतः निम्न योनि से आत्म-विकास की उच्चतम स्थिति निर्वाण को समझाने के लिये उसने निष्क्रिय आत्म-विकासवाद के सिद्धान्त को स्थापित किया। सामान्यतया उसके सिद्धान्त को नियतिवाद या अपुरुषार्थवाद किंवा भाग्यवाद कहा गया है, लेकिन मेरी दृष्टि में उसके सिद्धान्त को निष्क्रिय आत्म विकासवाद कहा जाना अधिक समुचित है।
ऐसा प्रतीत होता है गौशालक उस युग का चतुर व्यक्ति था, उसने अपने आजीवक सम्प्रदाय में पूर्ण कश्यप के सम्प्रदाय को भी शामिल कर लिया था। प्रारम्भ में उसने भगवान् महावीर के साथ अपनी साधना-पद्धति को प्रारम्भ किया था लेकिन उनसे वैचारिक मतभेद होने पर उसने पूर्ण कश्यप के सम्प्रदाय से मिलकर आजीवक सम्प्रदाय स्थापित कर लिया होगा।
जिसमें दर्शन एवं सिद्धान्त पूर्ण कश्यप की धारणाओं से प्रभावित थे तो साधना मार्ग का बाल स्वरूप महावीर की साधना पद्धति से प्रभावित था।
बौद्ध आगम एवं जैनागम दोनों में ही उसकी विचारणा का कुछ स्वरूप प्राप्त होता है। यद्यपि उसका प्रस्तुतीकरण एक विरोधी पक्ष के द्वारा हुआ है यह तथ्य ध्यान में रखना होगा।
गौशालक की विचारणा का स्वरूप पालि आगम में निम्नानुसार है:
.... हेतु के बिना.... प्राणी अपवित्र होता है, हेतु के बिना.... प्राणी शुद्ध होते हैं.... पुरुष की सामय से कुछ नहीं होता.... सर्व सत्य सर्व प्राणी, सर्व भूत, सर्व जीव अवश, दुर्बल निर्वीर्य है, वे नियति (भाग्य), संगति एवं स्वभाव के कारण परिणित होते हैं....
_इसके आगे उसकी नैतिकता की धारणा को पूर्ववत प्रकार से भ्रष्टरूप में उपस्थित किया गया है, जो विश्वसनीय नहीं मानी जा सकती।
उपर्युक्त आधार पर उसकी धारणा का सार यही है कि आत्मा निष्क्रिय है, अवीर्य है इसका विकास स्वभावतः होता रहता है। विभिन्न योनियों में होता हुआ यह जीवात्मा अपना विकास करता है और निर्वाण या मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। जैन तत्त्वदर्शन
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