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दिनों स्नातकोत्तर कक्षा में जैन दर्शन पढ़ने के दौरान आपके सम्पर्क में आया था। अनेक विदेशी छात्र भी अध्ययन एवं अपने शोध-कार्यों में सहयोग हेतु आपके पास आते रहते थे। एक पोलिश प्राध्यापक ने आपके साथ तत्त्वार्थ-भाष्य का अध्ययन किया।
विद्याश्रम में आपको श्रमण के संपादन एवं प्रूफ रीडिंग के साथ-साथ अपने शोध-छात्रों द्वारा लिखे निबन्धों तथा विविध शीर्षस्थ विद्वानों के ग्रन्थों के संपादन, प्रकाशन और प्रूफरीडिंग का कार्य करना पड़ा। इसका सबसे बड़ा लाभ आपको यह हुआ कि जैनधर्म, दर्शन, साहित्य, कला, इतिहास आदि की विविध विधाओं में आपकी गहरी पैठ हो गई। प्रतिष्ठा और पुरस्कार
हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल में कार्य करते समय भी आपकी राष्ट्रीय 'स्तर की अनेक संगोष्ठियों और सम्मेलनों में जाने का अवसर मिला, जहाँ आपने
अपने विद्वत्तापूर्ण आलेखों एवं सौजन्यपूर्ण व्यवहार से दर्शन एवं जैनविद्या के शीर्षस्थ विद्वानों में अपना स्थान बना लिया। जब आप भोपाल में थे, तभी प्रो. बारलिंगे के विशेष आग्रह पर आपको न केवल दर्शन परिषद् के कोषाध्यक्ष का भार सम्भालना पड़ा, अपितु दार्शनिक त्रैमासिक के प्रबन्ध संपादक का दायित्व भी ग्रहण करना पड़ा था, जिसका निर्वाह वाराणसी आने के पश्चात् भी सन् 1986 तक करते रहे। कालक्रम में आप अ.भा.दर्शन परिषद् के वरिष्ठ उपाध्यक्ष बने। अ.भा. दर्शन परिषद् के उन्नयन एवं विकास में आपने प्रो. रेवतीरमण पाण्डेय और प्रो. एस.पी. दुबे के साथ महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
हमीदिया महाविद्यालय के दर्शन विभागाध्यक्ष एवं पार्श्वनाथ विद्याश्रम के निदेशक के रूप में कार्य करते हुए आपकी प्रतिभा को सम्मान के अनेक अवसर उपलब्ध हुए। न केवल आपके अनेक आलेख पुरस्कृत हुए, अपितु आपके शोध-ग्रन्थ जैन, बौद्ध और गीता के आचारों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1 एवं भाग-2 को प्रदीपकुमार रामपुरिया पुरस्कार से तथा जैन भाषादर्शन को स्वामी प्रणवानन्द दर्शन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आपको प्राप्त सम्मानों की सूची बड़ी लम्बी है। इसे अलग से आगे दिया गया है।
डॉ. सारगमल जैन पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी के निदेशक तो रहे ही, उसके साथ-साथ वे जैन-विद्या की अनेक संस्थाओं से भी जुड़े रहे हैं। वे आगम, अहिंसा, समता और प्राकृत संस्थान, उदयपुर के भी मानद निदेशक रहे हैं, जहाँ आपके मार्गदर्शन में प्रकीर्णक साहित्य का अनुवाद का कार्य हुआ है। अ.भा. जैन विद्वत् परिषद् के तो आप संस्थापक ही रहे हैं, वर्षों तक आप इसके उपाध्यक्ष रहे। 670
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान