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जैनों के अनुसार उत्सर्पिणी काल में क्रमशः विकास और अवसर्पिणी काल में क्रमशः पतन होता है। ज्ञातव्य है कि कालचक्र का प्रवर्तन जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र आदि कुछ विभागों में ही होता है।
यद्यपि नव-तत्त्वों की इस अवधारणा में जीव(आत्मा) और पुद्गल महत्त्वपूर्ण हैं। अतः सर्वप्रथम इन दोनों पर थोड़े विस्तार से चर्चा करेंगे।
इन नवतत्त्वों में जीव और अजीव के अतिरिक्त जीव और अजीव (पुद्गल) के अथवा आत्मा और कर्म के सम्बन्ध के सूचक हैं। कर्मवर्गणा के पुद्गलों का आत्मा की ओर आना आस्रव है। उन दोनों का सम्बन्ध बन जाना ही बन्ध है। अशुभ कर्मों का आस्रव एवं बन्ध पाप है और शुभ कर्मों का आस्रव और बन्ध पुण्य रूप है। आत्मा की ओर कर्मपुद्गलों का आगमन रूक जाना संवर है और आत्मा और कर्मपुद्गलों का सम्बन्ध-विच्छेद होना निर्जरा है और आत्मा का कर्मपुद्गलों से पूर्णतः सम्बन्ध विच्छेद हो जाना मोक्ष है। आगे हम इन्हीं नवतत्त्वों की चर्चा करेंगे।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान