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________________ किन्तु कुछ श्वेताम्बर आचार्यों ने इस मत का विरोध करते हुए यह भी माना है कि कालद्रव्य एक एवं लोकव्यापी है । वह अणुरूप नहीं है । किन्तु ऐसी स्थिति में काल में भी प्रदेश - प्रचयत्व मानना होगा और प्रदेश - प्रचयत्व मानने पर वह भी अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत आ जायेगा । इसके उत्तर में यह कहा गया कि तिर्यक्-प्रचयत्व का अभाव होने से काल अनस्तिकाय है । ऊर्ध्व-प्रचयत्व एवं तिर्यक्-प्रयचत्व की चर्चा हम पूर्व में अस्तिकाय की चर्चा के अन्तर्गत कर चुके हैं । सूक्ष्मता की अपेक्षा से कालाणुओं की अपेक्षा आकाश प्रदेश और आकाश प्रदेश की अपेक्षा पुद्गल परमाणु अधिक सूक्ष्म माने गये हैं। क्योंकि एक ही आकाश प्रदेश में अनन्त पुद्गल परमाणु समाहित हो सकते हैं । अतः वे सबसे सूक्ष्म हैं। इस प्रकार परमाणु की अपेक्षा आकाश प्रदेश और आकाश प्रदेश की अपेक्षा कालाणु स्थूल हैं। संक्षेप में काल द्रव्य में वर्तना हेतुत्व के साथ-साथ अचेतनत्व; अमूर्त्तत्व, सूक्ष्मत्व आदि सामान्य गुण भी माने गये हैं । इसी प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य लक्षण जो अन्य द्रव्य में हैं, वे भी काल द्रव्य में पाये जाते हैं । काल द्रव्य में यदि उत्पाद, व्यय लक्षण नहीं रहे तो वह अपरिवर्तनशील द्रव्य होगा और जो स्वतः अपरिवर्तनशील हो वह दूसरों के परिवर्तन में निमित्त नहीं हो सकेगा । किन्तु काल द्रव्य का विशिष्ट लक्षण तो उसका वर्तना नामक गुण ही है, जिसके माध्यम से वह अन्य सभी द्रव्यों के पर्याय परिवर्तन में निमित्त का कारण बनकर कार्य करता है । पुनः यदि काल द्रव्य में ध्रौव्यत्व का अभाव मानेंगे तो उसका द्रव्यत्व समाप्त हो जायेगा। अतः उसे स्वतन्त्र द्रव्य मानने पर उसमें उत्पाद, व्यय के साथ-साथ ध्रौव्यत्व भी मानना होगा । कालचक्र अर्धमागधी आगम साहित्य में काल की चर्चा उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल के रूप में भी उपलब्ध होती है । इनमें प्रत्येक के छह-छह विभाग किये जाते हैं, जिन्हें आरे कहा जाता है । यह छह आरे निम्न हैं - 1. सुषमा- सुषमा, 2. सुषमा, 3. सुषमा-दुषमा, 4. दुषमा-सुषमा, 5. दुषमा और 6. दुषमा-दुषमा। उत्सर्पिणी काल में इनका क्रम विपरीत होता है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल मिलकर एक कालचक्र पूरा होता है। जैनों की कालचक्र की यह कल्पना बौद्ध और हिन्दू कालचक्र की कल्पना से भिन्न है । किन्तु इन सभी में इस बात को लेकर समानता है कि इन सभी कालचक्र के विभाजन का आधार सुख-दुःख एवं मनुष्य के नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की क्षमता को बनाया है 1 जैन तत्त्वदर्शन jite 53
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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