SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 649
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोगों की सेवा काय से करते हैं, धर्म से नहीं । दूसरों को धर्म का उपदेश देते हैं, (अपने ) लाभ के लिए, न कि ( उसके ) अर्थ के लिए । स्थविरवादी भिक्षुओं का विरोध लोकसेवा के उस रूप से है जिसका सेवा-रूपी शरीर तो है, लेकिन जिसकी नैतिक चेतनारूपी आत्मा मर चुकी है। वह लोकसेवा सेवा नहीं, सेवा का प्रदर्शन है, दिखावा है, ढोंग है, छलना है आत्मप्रवंचना है । डॉ. भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार एकांतता की साधना की प्रारम्भिक बौद्धधर्म में प्रमुखता अवश्य थीं, परंतु सार्थक तथ्य यह है कि उसे लोकसेवा के या जनकल्याण के विपरीत वहाँ कभी नहीं माना गया। बल्कि यह तो उसके लिए एक तैयारी थी।' दूसरी ओर यदि हम महायानी साहित्य का गहराई से अध्ययन करें तो हमें बोधिचर्यावतार, शिक्षासमुच्चय, लंकावतारसूत्र जैसे ग्रन्थों में भी कहीं ऐसी सेवाभावना का समर्थन नहीं मिलता हो नैतिक जीवन के व्यक्तिगत मूल्यों के विरोध में खड़ी हो। लोकमंगल का जो आदर्श महायान परम्परा ने प्रस्तुत किया है, वह भी ऐसे किसी लोकहित का समर्थन नहीं करता, जिसके लिए वैयक्तिक नैतिकता को समाप्त कर दिया जाये । इस प्रकार सैद्धांतिक दृष्टि से लोकहित और आत्महित की अवधारणा में हीनयान और महायान में कोई मौलिक विरोध नहीं रहा जाता । यद्यपि व्यावहारिक रूप में यह तथ्य सही है कि जहाँ एक ओर हीनयान ने एकल साधना और व्यक्तिनिष्ठ आचार - परम्परा का विकास किया और साधना को अधिकांश रूपेण आंतरिक एवं वैयक्तिक बना दिया, वहाँ दूसरी ओर महायान ने उसी की प्रतिक्रिया में साधना के वैयक्तिक पक्ष की उपेक्षा कर उसे सामाजिक और बहिर्मुखी बना दिया । इस तरह लोकसेवा और लोकानुकम्पा को अधिक महत्त्व दिया। यहां हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि हीनयान और महायान ने जिस सीमा तक अपने में इस एक पक्षीयता को प्रश्रय किया है, वे उसी सीमा तक बुद्ध की मध्यमार्गीय देशना से पीछे भी हटे हैं। हिन्दू परम्परा में गीता में स्वहित के ऊपर लोकहित की प्रतिष्ठा हुई है । गीताकार की दृष्टि में जो अपने लिए ही पकाता और खाता है वह पाप की खाता है ।' स्वहित के लिए जीने वाला व्यक्ति गीता की दृष्टि में अधार्मिक और नीच है । गीताकार के अनुसार जो व्यक्ति प्राप्त भोगों को देने वाले को दिए बिना अर्थात् उनका ऋण चुकाये बिना खाता है वह चोर है । सामाजिक दायित्वों का निर्वाह न करना गीता की दृष्टि में भारी अपराध है । गीता के अनुसार लोकहित करना मनुष्य का कर्त्तव्य है । सर्वप्राणियों के हित सम्पादन में लगा हुआ पुरूष ही परमात्मा को प्राप्त करता है । वह ब्रह्म-निर्वाण का अधिकारी होता है । जिसे कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं रह गया है, जो जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 636
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy