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________________ स्वहित बनाम लोकहित का प्रश्न जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया - प्रारम्भिक श्रमणधर्म एकान्त साधना और वैयक्तिक मुक्ति पर ही बल देते थे । यद्यपि हमें ध्यान यह रखना होगा कि उनकी यह एकान्त साधना और वैयक्तिक मुक्ति की अवधारणा जन कल्याण के विपरीत नहीं थी, फिर भी उसमें लोकहित का एक विधायक पक्ष उपलब्ध नहीं होता है । सम्भवतः भगवान् बुद्ध प्रथम श्रमण थे, जिन्होंने लोकमंगल की चेतना को विकसित किया है। पालि अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध का कथन है कि भिक्षुओं, जैसे तालाब का पानी गन्दा हो, चंचल हो और कीचड़ - युक्त हो, वहाँ किनारे पर खड़े आंख वाले आदमी को न सीप दिखाई दे, न शंख, न कंकड, न पत्थर, न चलती हुई या स्थित मछलियां दिखाई दें। यह ऐसा क्यों ? भिक्षुओं, पानी के गंदला होने के कारण । इसी प्रकार भिक्षुओं, इसकी सम्भावना नहीं है कि वह भिक्षु मैले ( राग-द्वेषादि से युक्त) चित्त से आत्महित जान सकेगा, परहित जान सकेगा, उभयहित जान सकेगा और सामान्य मनुष्य धर्म से बढ़कर विशिष्ट आर्यज्ञान - दर्शन को जान सकेगा । इसकी सम्भावना है कि भिक्षु निर्मल चित्त से आत्महित को जान सकेगा, परहित को जान सकेगा, उभयहित को जान सकेगा, सामान्य मनुष्य धर्म से बढ़कर विशिष्ट आर्यज्ञान - दर्शन को जान सकेगा " " । बुद्ध के इस कथन का सार यही है कि जीवन में जब तक राग-द्वेष और मोह की वृत्तियाँ सक्रिय हैं, तब तक आत्महित और लोकहित की यथार्थदृष्टि उत्पन्न नहीं होती है । राग और द्वेष का प्रहाण होने पर ही सच्ची लोक मंगल की दृष्टि का उदय होता है और जब यह यथार्थ उत्पन्न हो जाती है तब स्वार्थ, परार्थ और उभयार्थ में कोई विरोध ही नहीं करता । हीनयान या स्थविरवाद में जो स्वहितवाद अर्थात् आत्मकल्याण के दृष्टिकोण का प्राधान्य है, उसका मूल कारण तत्कालीन परिस्थितियां मानी जा सकती हैं, फिर भी हीनयान का उस लोकमंगल की साधना से मूलतः कोई विरोध नहीं है, जो वैयक्तिक नैतिक विकास में बाधन न हो । जिस अवस्था तक वैयक्तिक नैतिक विकास और लोकमंगल की साधना में अविरोध है, उस अवस्था तक लोकमंगल उसे भी स्वीकार है । मात्र व लोकमंगल के लिए आन्तरिक और नैतिक विशुद्धि को अधिक महत्त्व देता है । आन्तरिक पवित्रता एवं नैतिक विशुद्धि से शून्य होकर फलाकांक्षा से युक्त लोकसेवा के आदर्श को वह स्वीकार नहीं करता। उसकी समग्र आलोचनाएँ ऐसे ही लोकहित के प्रति है । भिक्षु पारापरिय ने, बुद्ध के परवर्ती भिक्षुओं में लोकसेवा का जो थोथा आदर्श जोर पकड़ गया था, उसकी समालोचना में निम्न विचार प्रस्तुत किये हैं : 1 : बौद्ध धर्मदर्शन 635
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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