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अन्यथानुपलब्धि को ही हेतु का एकमात्र लक्षण बताते हैं। जैन दार्शनिक पात्रकेसरी ने तो एतदर्थ "त्रिलक्षणकदर्थन" नामक स्वतंत्र ग्रंथ की ही रचना की थी।
13. अनुपब्धि को जहाँ बौद्ध दार्शनिक मात्र निषेधात्मक या अभाव रूप मानते हैं, वहाँ जैन दार्शनिक उसे विधि-निषेध रूप मानते हैं। भट्ट मीमांसक और वेदान्त उसे प्रमाण ज्ञान में सहायक मात्र मानते हैं। नैतिक एवं धार्मिक चिन्तन में प्रमुखतया समरूपता
जहाँ तक धार्मिक, नैतिक एवं आचार व्यवस्था सम्बन्धी प्रश्नों की स्थिति है जैन, बौद्ध और हिन्दू परम्परा में समरूपताएँ ही अधिक हैं। यद्यपि आचार के क्षेत्र में भगवान बुद्ध ने मध्यममार्ग का प्रतिपादन कर कठोर तपश्चर्या रूप देह दण्डन और भोगों के प्रति अति आकर्षण से बचने का निर्देश किया। इस सम्बन्ध में जैनों की स्थिति भिन्न रही, उन्होंने आचार के क्षेत्र में कठोरता और विचार के क्षेत्र में, अनेकांतवाद के माध्यम से उदारता का परिचय दिया। इस सम्बन्ध में विशेष तुलनात्मक अध्ययन मैंने अपने शोधग्रन्थ जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन में किया है। आचारगत प्रश्नों पर जैन और बौद्धों में समरूपता ही अधिक है, त्रिपिटक और जैनागमों की सैकड़ों गाथाएँ अर्थतः या शब्दतः समान ही हैं। जैनों ने आचार शास्त्र का मुख्य लक्ष्य राग-द्वेष का त्याग, बौद्धों ने तृष्णा का त्याग और हिन्दू परम्परा ने आसक्ति का त्याग माना है। इस आलेख को यहीं विराम देना चाहेंगे।
संदर्भ1. षडदर्शन समुच्चय, सम्पादक डॉ. महेन्द्रकुमार प्रस्तावना पृ. 14 2. वही, पृ. 19 3. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ. 43
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान