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9. बौद्ध दार्शनिक अनुमान के दो भेद करते हैं, स्वार्थ और परार्थ। जैन दार्शनिक भी अनुमान के इन दोनों भेदों को स्वीकार करते हैं, किंतु जैनदार्शनिक सिद्धसेन न्यायावतार में प्रत्यक्ष के भी स्वार्थ और परार्थ ऐसे दो भेद करते हैं। सिद्धसेन दिवाकर के अतिरिक्त कुछ अन्य जैन आचार्यों जैसे शांतिसरि एवं वादिदेवसूरि ने भी इन भेदों का उल्लेख किया है।
10. प्रत्यक्षप्रमाण के स्वरूप एवं भेदों को लेकर भी दोनों में मतभेद देखा जा सकता है। प्रथम तो जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है जहाँ बौद्ध दार्शनिक प्रत्यक्ष को कल्पना से रहित और निर्विकल्पक मानते हैं वहाँ जैन दार्शनिक उसे सविकल्पक कहते हैं। पुनः बौद्ध दार्शनिक प्रत्यक्ष के जैनों के समान सांव्यवहारिक
और पारमार्थिक ऐसे दो भेद नहीं करते हैं। उनके यहाँ प्रत्यक्ष के चार भेद हैं1. स्वसंवेदना प्रत्यक्ष 2. इन्द्रिय प्रत्यक्ष 3. मानस प्रत्यक्ष और 4. योगज प्रत्यक्ष। प्रथम तो जहाँ जैन इन्द्रिय प्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं, वहाँ बौद्ध प्रत्यक्ष में ऐसा कोई विभाजन नहीं करते। पुनः जहाँ जैनदर्शन में इन्द्रिय और मानस प्रत्यक्ष के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ऐसे चार भेद किए गए हैं वहाँ बौद्ध दर्शन में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है। बौद्ध दर्शन में अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के रूप में योगज प्रत्यक्ष को रखा गया है जबकि जैनदर्शन में अतीन्द्रिय ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष के रूप में है और उसके अन्तर्गत अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान को रखा गया है। जहाँ तक बौद्धों के स्वसंवेदन का प्रश्न हैं जैनों ने उसे दर्शन कहा है। इस प्रकार प्रत्यक्ष के स्वरूप और प्रकारों को लेकर दोनों में मतभेद है। नैयायिकों ने प्रत्यक्ष का एक भेद योगज माना है।
___11. पुनः प्रत्यक्ष प्रमाण के अंतर्गत इन्द्रिय-प्रत्यक्ष में जहाँ बौद्ध दार्शनिक श्रोतेन्द्रिय और चक्षु-इन्द्रिय दोनों को अप्राप्यकारी मानते हैं, वहाँ जैन दार्शनिक केवल चक्षु-इन्द्रिय को ही अप्राप्यकारी मानते हैं। जैनों के अनुसार श्रोतेन्द्रिय शब्द का ग्रहण उसके इन्द्रिय-सम्पर्क होने के आधार पर ही करती हैं, दूर से नहीं करती है। इस प्रकार श्रोतेन्द्रिय की प्राप्यकारिता को लेकर दोनों में मतभेद है। रत्नप्रभ
की रत्नाकरावतारिका में अनेक तर्कों के आधार पर श्रोतेन्द्रिय को प्राप्यकारी सिद्ध किया गया है, किन्तु चक्षु-इन्द्रिय को दोनों ही अप्राप्यकारी मानते हैं। नैयायिक सभी इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानते हैं।
12. हेतु के लक्षण को लेकर भी दोनों परम्पराओं में मतभेद देखा जा सकता है। जहाँ बौद्ध दार्शनिक रूप्य हेतु अर्थात् पक्षधर्मत्त्व, सपक्षसत्त्व, विपक्ष-असत्त्व का प्रतिपादन करते हैं, वहाँ जैन दार्शनिक साध्यसाधन अविनाभाव अर्थात्
बौद्ध धर्मदर्शन
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