SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 591
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5. दही और मक्खन की तरह 6. तिल की खली और तेल की तरह 7. ईख और उसके छिलके की तरह 8. अरणि की लकड़ी और आग की तरह इस प्रकार जैनागमों में प्रस्तुत ग्रन्थ में ही सर्वप्रथम देहात्मवादियों के दृष्टिकोण को तार्किक रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है । पुनः उनकी देहात्मवादी मान्यता के आधार पर उनकी नीति संबंधी अवधारणाओं को निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया गया है - यदि शरीर मात्र ही जीव है तो परलोक नहीं हैं । इसी प्रकार क्रिया- अक्रिया, सृकृत-दुष्कृत, कल्याण- पाप, भला-बुरा, सिद्धि-असिद्धि, स्वर्ग-नरक आदि भी नहीं हैं। अतः प्राणियों के वध करने, भूमि को खोदनें, वनस्पतियों को काटने, अग्नि को जलाने, भोजन पकाने आदि क्रियाओं में भी कोई पाप नहीं हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में देहात्मवाद की युक्ति-युक्त समीक्षा न करके मात्र यह कहा गया है कि ऐसे लोग हमारा ही धर्म सत्य है ऐसा प्रतिपादन करते हैं और श्रमण होकर भी सांसारिक भोग विलासों में फंस जाते हैं । इसी अध्याय में पुनः पंचमहाभूतवादियों तथा पंचमहाभूत और छठा आत्मा मानने वाले सांख्यों का भी उल्लेख हुआ हैं। प्रसतुत ग्रन्थ की सूचना के अनुसार पंचमहाभूतवादी स्पष्ट रूप से यह मानते थे कि इस जगत् में पंचमहाभूत ही सब कुछ हैं। जिनसे अर्थात् पंचमहाभूतों से हमारी क्रिया-अक्रिया, सुकृत- दुष्कृत, कल्याण-पाप, अच्छा-बुरा, सिद्धि-असिद्धि, नरक गति या नरक के अतिरिक्त अन्यगति; अधिक कहां तक कहें तिनके के हिलने जैसी क्रिया भी होती हैं, क्योंकि आत्मा तो अकर्ता है। उस भूत समवाय (समूह) को पृथक्-पृथक् नाम से जानना चाहिए जैसे कि - पृथ्वी एक महाभूत है, जल दूसरा महाभूत है, तेज तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और आकाश पाँचवा महाभूत हैं। ये पाँच महाभूत किसी कर्त्ता के द्वारा निर्मित नहीं है न ही ये किसी कर्त्ता द्वारा बनाये हुए हैं, ये किये हुये भी नहीं है, न ही ये कृत्रिम हैं और न ये अपनी उत्पत्ति के लिए किसी की अपेक्षा रखते हैं। ये पाँचों महाभूत आदि एवं अन्त रहित हैं तथा अवध्य और आवश्यक कार्य करने वाले हैं। इन्हें कार्य में प्रवृत्त करने वाला कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, ये स्वतन्त्र एवं शाश्वत नित्य हैं । यह ज्ञातव्य है कि जैनागमों में ऐसा कोई भी सन्दर्भ उपब्ध नहीं होता है कि जिसमें मात्र चार महाभूत (आकाश को छोड़कर) मानने वाले चार्वाकों का उल्लेख हुआ हो । 578 जैन दर्शन तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy