________________
6. उस युग में दार्शनिकों का एक वर्ग अक्रियावाद का समर्थक था। जैनों के
अनुसार अक्रियावादी वे दार्शनिक थे, जो आत्मा को अकर्ता और कूटस्थनित्य मानते थे। आत्मावादी होकर भी शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फल (कर्मसिद्धान्त) के निषेधक होने से ये प्रच्छन्न चार्वाकी ही थे।
इस प्रकार आचारांग, सूत्रकृतांग, और उत्तराध्ययन में चार्वाक दर्शन के जो उल्लेख हमें उपलब्ध होते है, वे मात्र उसकी अवधारणाओं को संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। उनमें इस दर्शन की मान्यताओं से साधक को विमुख करने के लिए इतना तो अवश्य कहा गया है कि यह विचारधारा समीचीन नहीं हैं, किन्तु इन ग्रन्थों में चार्वाक दर्शन की मान्यताओं का प्रस्तुतीकरण और निरसन दोनो ही न तो तार्किक है और न विस्तृत ही। सूत्रकृतांग (द्वितीय श्रुतस्कन्ध) में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा
चार्वाकों अथवा तज्जीवतच्छरीरवादियों के पक्ष का तार्किक दृष्टि से प्रस्तुतीकरण और उसकी तार्किक समीक्षा का प्रयत्न जैन आगम साहित्य में सर्व प्रथम सूत्रकृतांग के द्वितीय पौण्डरिक नामक अध्ययन में और उनके पश्चात् राजप्रश्नी सूत्र में उपलब्ध होता हैं। अब हम सूत्रकृतांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध के आधार पर तज्जीवतच्छरीरवादियों के पक्ष को प्रस्तुतीकरण करेंगे और उसकी समीक्षा प्रस्तुत करेंगे।
___ तज्जीवतच्छरीरवादी यह प्रतिपादित करते हैं कि “पादतल से ऊपर मस्तक के केशों के अग्र भाग से नीचे तक तथा समस्त त्वक्पर्यन्त जो शरीर है वही जीव हैं। इस शरीर के जीवित रहने तक ही यह जीव जीति रहता है और शरीर के नष्ट हो जाने पर नष्ट हो जाता हैं। इसलिए शरीर के अस्तित्व पर्यन्त ही जीवन का अस्तित्व हैं। इस सिद्धान्त को युक्ति-युक्त समझना चाहिए। क्योंकि जो लोग युक्ति पूर्वक यह प्रतिपादित करते हैं कि शरीर अन्य है और जीव अन्य है वे जीव
और शरीर को पृथक्-पृथक् करके नहीं दिखा सकते। वे यह भी नहीं बता सकते कि आत्मा दीर्घ है या ह्वस्व हैं या वह परिमण्डलाकार अथवा गोल हैं। वह किस वर्ण
और किस गन्ध से युक्त है अथवा वह भारी है, हल्का है, स्निग्ध है या रूक्ष है, अतः जो लोग जीव और शरीर को भिन्न नहीं मानते उनका ही मत युक्ति संगत हैं।" क्योंकि जीव और शरीर को निम्नोक्त पदार्थों की तरह पृथक्-पृथक् करके नहीं दिखाया जा सकता, यथा - 1. तलवार और म्यान की तरह 2. मुंज और इषिका की तरह 3. मांस और हड्डी की तरह 4. हथेली और आंवले की तरह जैनागम और चार्वाक दर्शन
577