________________
में ही परिभाषित किया गया है। उत्पत्ति, विनाश, ध्रौव्यता आदि इन विरोधी गुणधर्मों में ऐसा नहीं है कि उत्पन्न कोई दूसरा होता है, विनष्ट कोई दूसरा होता है। वस्तुतः जैनों के अनुसार जो उत्पन्न होता है वही विनष्ट होता है और जो विनष्ट होता है, वही उत्पन्न होता है और यही उसकी ध्रौव्यता है। वे मानते हैं कि सो सत्ता एक पर्यायरूप में विनष्ट हो रही है वही दूसरी पर्याय के रूप में उत्पन्न भी हो रही है और पर्यायों के उत्पत्ति और विनाश के इस क्रम में भी उसके स्वलक्षणों का अस्तित्व बना रहता है। उमास्वामि ने तत्त्वार्थसूत्र (5.25) में “उत्पादव्ययधौव्यात्मकं सत्" कहकर वस्तु के इसी अनैकान्तिक स्वरूप को स्पष्ट किया है।
प्रायः यह कहा जाता है कि उत्पत्ति और विनाश का सम्बन्ध पर्यायों से है। द्रव्य तो नित्य ही है, पर्याय परिवर्तित होती है, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि द्रव्य, गुण और पर्याय विविक्त सत्ताएं नहीं है, अपितु एक ही सत्ता की अभिव्यक्तियाँ हैं। न तो गुण और पर्याय से पृथक् द्रव्य होता है और न द्रव्य से पृथक गुण और पर्याय ही। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र (5.37) में 'गुणपर्यायवत् द्रव्यम्' कहकर द्रव्य को परिभाषित किया गया है। द्रव्य की परिणाम जनन शक्ति को ही गुण कहा जाता है और गुणजन्य परिणाम विशेष पर्याय है। यद्यपि गुण और पर्याय में कार्य-कारण भाव है, किन्तु यहाँ यह कार्य-कारण भाव परस्पर भिन्न सत्ताओं में न होकर एक ही सत्ता में है। कार्य और कारण परस्पर भिन्न न होकर भिन्नाभिन्न ही है। द्रव्य उसकी अंशभूत शक्तियों के उत्पन्न और विनष्ट न होने पर नित्य अर्थात् ध्रुव है परन्तु प्रत्येक पर्याय उत्पन्न और विनष्ट होती है इसलिए वह सादि और सान्त भी है। क्योंकि द्रव्य का ही पर्याय रूप में परिणमन होता है इसलिए द्रव्य को ध्रुव मानते हुए भी अपनी परिणमनशीलता गुण के कारण उत्पाद-व्यय युक्त भी कहा गया है। चूँकि पर्याय और गुण द्रव्य से पृथक् नहीं हैं और द्रव्य, गुण और पर्यायों से पृथक नहीं है, अतः यह मानना होगा कि जो नित्य है वही परिवर्तनशी भी है अर्थात् अनित्य भी है। यही वस्तु या सत्ता की अनैकान्तिकता है और इसी के आध गार पर लोक-व्यवहार चलता है।
यद्यपि यह कहा जा सकता है कि उत्पाद-व्ययात्मकता और ध्रौव्यता अथवा नित्यता और अनित्यता परस्पर विरुद्ध धर्म होने से एक ही साथ एक वस्तु में नहीं हो सकते। यह कथन ही जो नित्य है वही अनित्य भी है, जो परिवर्तनशील है वही अपरिवर्तनशील भी है, तार्किक दृष्टि से विरोधाभासपूर्ण प्रतीत होता है और यही कारण है कि बौद्धों और वेदान्तियों ने इस अनेकान्त दृष्टि को अनर्गल प्रलाप कहा है। किन्तु अनुभव के स्तर पर इनमें कोई विरोध प्रतीत नहीं होता है। एक ही व्यक्ति बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था को प्राप्त होता है। इन विभिन्न 530
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान