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विविधिता लिये हुए है। उसके विविध गुणधर्मों में समय-समय पर कुछ प्रकट और कुछ गौण बने रहते हैं, यही वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता है और वस्तु में परस्पर विरोधी धर्म युगलों का पाया जाना उसकी अनैकान्तिकता है। द्रव्य और पर्याय की अपेक्षा से विचार करें तो जो सत् है वही असत् भी है, जो एक है वही अनेक भी है, जो नित्य है वही अनित्य भी है। इससे सिद्ध है कि वस्तु न केवल अनन्त धर्मों का पुंज है बल्कि उसमें एक ही समय में परस्पर विरोधी गुणधर्म भी पाये जाते हैं पुनः वस्तु के स्वस्वरूप का निर्धारण केवल भावात्मक गुणों के आधार पर नहीं होता बल्कि उसके अभावात्मक गुणों को भी निश्चय करना होता है। गाय को गाय होने के लिए उसमें गोत्व की उपस्थिति के साथ-साथ महिषत्व, अश्वत्व आदि का अभाव होना भी आवश्यक है। गाय, गाय है, यह निश्चय तभी होगा जब हम यह निश्चय कर लें कि उसमें गाय के विशिष्ट गुणधर्म पाये जाते हैं और बकरी के विशिष्ट लक्षण नहीं पाये जाते हैं। इसलिए प्रत्येक वस्तु में जहाँ अनेकानेक भावात्मक धर्म होते हैं वहीं उसमें अनन्तानन्त अभावात्मक धर्म भी होते हैं। अनेकानेक धर्मों सद्धाव और उससे कई गुना अधिक धर्मो का अभाव मिलकर ही उस वस्तु का स्वलक्षण बनाते हैं। भाव और अभाव मिलकर ही वस्तु के स्वरूप को निश्चित करते हैं। वस्तु इस-इस प्रकार की है और इस-इस प्रकार की नहीं है, इसी से वस्तु का स्वरूप निश्चित होता है। वस्तुतत्त्व की अनैकांतिकता
वस्तु या सत् की परिभाषा को लेकर विभिन्न दर्शनों में मतभेद पाया जाता है। जहाँ औपनिषदिक और शंकर वेदान्त दर्शन 'सत्' को केवल कूटस्थ नित्य मानता है, वहाँ बौद्ध दर्शन वस्तु को निरन्वय, क्षणिक और उत्पाद-व्ययधर्मा मानता है। सांख्य दर्शन का दृष्टिकोण तीसरा है वह जहाँ चेतन सत्ता पुरुष को कूटस्थ नित्य मानता है, वहीं जड़ तत्त्व प्रकृति को परिणामी नित्य मानता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन जहाँ परमाणु, आत्मा आदि द्रव्यों को कूटस्थ नित्य मानता है वहीं घट-पट आदि पदार्थों को मात्र उत्पाद-व्ययधर्मा मानता है। इस प्रकार वस्तुतत्त्व की परिभाषा के सन्दर्भ में विभिन्न दर्शन अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाते हैं। जैनदर्शन इन समस्त एकान्तिक अवधारणाओं को समन्वित करता हुआ सत् या वस्तुतत्त्व को अपनी अनैकान्तिक शैली में परिभषित करता है।
___ जैनदर्शन में आगम युग से ही वस्तुतत्त्व को अनैकान्तिक शैली में परिभाषित किया जाता रहा है। जैनदर्शन में तीर्थंकरों को त्रिपदी का प्रवक्ता कहा गया है। वे वस्तु-तत्त्व को “उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा” इन तीन पदों के द्वारा परिभाषित करते हैं। उनके द्वारा वस्तुतत्त्व को अनेकधर्मों और अनैकांतिक रूप जैन अनेकान्तदर्शन
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