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उसके सम्यक् परिप्रेक्ष्य में ग्रहण न कर उसकी खुलकर समालोचना की हो। वस्तुतः अनेकांत. एक सिद्धान्त नहीं, एक पद्धति है और फिर चाहे कोई भी दर्शन हो, बहुआयामी परमतत्त्व की अभिव्यक्ति के लिए उसे इस पद्धति को स्वीकार करना ही होता है। चाहे हम सत्ता को निरपेक्ष मान लें और यह भी मान लें कि उसकी निरपेक्ष अनुभूति भी सम्भव है किन्तु निरपेक्ष अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। चाहे निरपेक्ष अनुभूति की अभिव्यक्ति का जब भी भाषा के माध्यम से कोई प्रयत्न किया जाता है, वह सीमित और सापेक्ष बन कर रह जाती है। अनन्त धर्मात्मक परमतत्त्व की अभिव्यक्ति का जो भी प्रयत्न होगा वह तो सीमित और सापेक्ष ही होगा। एक सामान्य वस्तु का चित्र भी जब बिना किसी कोण के सम्भव नहीं है तो फिर उस अनन्त और अनिर्वचनीय के निर्वचन का दार्शनिक प्रयत्न अनेकांत की पद्धति को अपनाये बिना कैसे सम्भव है। यही कारण है कि चाहे कोई भी दर्शन हो, उसकी प्रस्थापना के प्रयत्न में अनेकांत की भूमिका अवश्य निहित है और यही कारण है कि भारतीय दार्शनिक चिन्तन की पृष्ठभूमि में अनेकांत का दर्शन रहा है।
सभी भारतीय किसी न किसी रूप में अनेकांत को स्वीकृति देते हैं, इस तथ्य का निर्देश आचार्य यशोविजय ने आध्यात्मोपनिषद् में किया है।
उन्हीं के शब्दों में -
चित्रमेकमनेकं च रूपं प्रामाणिक वदन् । योगोविशेषको वापि नानेकांतं प्रतिक्षिपेत्।।
विज्ञानस्यमैकाकारं नानाकार करम्वितम् । इच्छंस्थागतः प्राज्ञो नानेकांतं प्रतिक्षिपेत् ।।
जातिवाक्यात्मकं वस्तु वदन्ननुभवोचितम् । भाट्टो वा मुरारिर्वा नानेकांतं प्रतिक्षिपेत।।
_____ अबद्धं परमार्थेन बद्धं च व्यवहारतः। ब्रुवाणों ब्रह्मवेदान्ती नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ।।
ब्रुवाण भिन्न-भिन्नार्थन् नयभेद व्यपेक्षया। प्रतिक्षिपेयु! वेदाः स्याद्वाद सार्वतान्त्रिक।।
अनेकान्तवाद का मूल प्रयोजन सत्य को उसके विभिन्न आयामों में देखने, समझने और समझाने का प्रयत्न है। यही कारण है कि मानवीय प्रज्ञा के विकास के प्रथम चरण से ही ऐसे प्रयास परिलक्षित होने लगते हैं। भारतीय मनीषा के प्रारम्भिक काल में हमें इस दिशा में दो प्रकार के प्रयत्न दृष्टिगत होते हैं - (क) बहुआयामी सत्ता के किसी पक्ष विशेष की स्वीकृति के आधार पर अपनी दार्शनिक मान्यता का प्रस्तुतीकरण तथा (ख) उन एकपक्षीय (एकान्तिक) अवधारणाओं के जैन अनेकान्तदर्शन
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