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अनिरोधमनुत्पादमनुच्छेदमशाश्वतम्। अनेकार्थमनानार्थमनागममनिर्गमम् ।। यः प्रतीत्य समुत्पादं प्रपंचोपशमं शिवम्।
देशयामास संबुद्धस्तं वन्दे द्विपदां वरम्।। प्रस्तुत कारिका का तात्पर्य यही है कि वह परमसत्ता न तो विनाश को प्राप्त होती है और न उसका उत्पाद होता है, वह उच्छिन्न भी नहीं होती और वह शाश्वत भी नहीं होती। वह एक भी नहीं है और अनेक भी नहीं है। उसका आगम भी नहीं है और उसका निर्गम भी नहीं है। इसी बात को प्रकारान्तर से इस प्रकार भी कहा गया है13 -
न सद् नासद् न सदसत् न चानुभयात्मकम् ।
चतुष्कोटि विनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदु।। अर्थात् परम तत्त्व न सत् है, न असत् है, न सत्-असत् है और न सत्-असत् दोनों नहीं है। यही बात प्रकारान्तर से विधिमुख शैली में जैनाचार्यों ने भी कही है -
यदेवतत्तदेवातत् यदेवैकं तदेवानेकं
- यदेवसत् तदेवासत्, यदेवनित्यं तदेवानित्यम्।
अर्थात् जो तत् रूप है, वही अतत् रूप भी है, जो एक है वही अनेक भी है, जो सत है, वही असत् भी है, जो नित्य है, वही अनित्य भी है।
उपरोक्त प्रतिपादनों में निषेधमुख शैली और विधिमुख शैली का अन्तर अवश्य है, किन्तु तात्पर्य में इतना अन्तर नहीं है, जितना समझा जाता है एकान्तवाद का निरसन दोनों का उद्देश्य है। शून्यवाद और स्याद्वाद में मौलिक भेद निषेधात्मक
और विधानात्मक शैली का है। एकान्त में रहा हुआ दोष शून्यवादी और स्याद्वादी दोनों ही देखते हैं किन्तु जहां शून्यवादी उस एकान्त के दोष के भय से उसे अस्वीकार कर देता है, वहां अनेकांतवादी उसके आगे स्यात् शब्द रखकर उस दूषित एकान्त को निर्दोष बनाने का प्रयत्न करता है।
__ शून्यवाद तत्त्व को चतुष्टकोटि विनिर्मुक्त शून्य कहता है तो स्याद्वाद उसे अनन्तधर्मात्मक कहता है, किन्तु स्मरण रखना होगा कि शून्य और अनन्त का गणित एक ही जैसा है। शून्यवाद जिसे परमार्थ सत्य और लोकसंवृत्ति सत्य कहता है उसे जैन दर्शन निश्चय और व्यवहार कहता है। तात्पर्य यह है कि अनेकांतवाद और शून्यवाद की पृष्ठभूमि में बहुत कुछ समरूपता है।
प्रस्तुत विवेचन से यह स्पष्ट है कि समग्र भारतीय दार्शनिक चिन्तन की पृष्ठभूमि में अनैकांतिक दृष्टि रही हुई है चाहे उन्होंने अनेकांत के सिद्धान्त को
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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