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________________ इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप त्रिपदी की जो स्थापना जैन दर्शन में है। वही बात शब्दान्तर से उत्पत्ति-विनाश और स्थिति के रूप में मीमांसा दर्शन ने कही है। कुमारिल भट्ट के द्वारा पदार्थ को उत्पत्ति, विनाश और स्थितियुक्त मानना, अवयवी और अवयव में भेदाभेद मानना, सामान्य और विशेष को सापेक्ष मानना आदि तथ्य इसी बात को पुष्ट करते हैं कि उनके दार्शनिक चिन्तन की पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं अनेकांत के तत्त्व उपस्थित रहे हैं। श्लोकवार्तिक वनवाद में तो वे स्वयं अनेकांत की प्रमाणिकता सिद्ध करते हैं - वस्त्वनेकवादाच्च न संदिग्धा प्रमाणता। ज्ञानं संदिह्यते यत्र तत्र न स्यात् प्रमाणता।। इहानैकांतिकं वस्त्वित्येवं ज्ञानं सुनिश्चितम्। इसी अंश की टीका में पार्थसार मिश्र ने भी स्पष्टतः अनेकांतवाद शब्द का प्रयोग किया है। यथा - ये चैकान्तिकं भेदमभेदं वाऽवयविनः समाश्रयन्ते तैरेवायमनेकांतवाद। मात्र इतना ही नहीं, उसमें वस्तु को स्व-स्वरूप की अपेक्षा सत्, पर स्वरूप की अपेक्षा असत् और उभय रूप से सदासत् रूप माना गया है। यथा - सर्वं हि वस्तु स्वरूपतः सद्रूपं पररूपतश्चासद्रूपं यथा घटो घट रूपेण सत्, पटरूपेणऽसन् .... 134 यहां कुछ ही सन्दर्भ प्रस्तुत किये हैं। यदि भारतीय दर्शनों के मूल ग्रन्थों और उनकी टीकाओं का सम्यक् परिशीलन किया जाये तो ऐसे अनेक तथ्य परिलक्षित होंगे जो उन दर्शनों की पृष्ठभूमि में रही हुई अनेकांत दृष्टि को स्पष्ट करते हैं। अनेकांत एक अनुभूत्यात्मक सत्य है। उसे नकारा नहीं जा सकता है। अन्तर मात्र उसके प्रस्तुतीकरण की शैली का होता है। वेदान्त दर्शन और अनेकांतवाद ___भारतीय दर्शनों में वेदान्त वस्तुतः एक दर्शन नहीं, अपितु दर्शन समूह वाचक है। ब्रह्मसूत्र को केन्द्र में रखकर जिन दर्शनों का विकास हुआ वे सभी इस वर्ग में समाहित किये जाते हैं। इसके अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैत आदि अनेक सम्प्रदाय हैं। नैकस्मिन्न संभवात् (ब्रह्म सूत्र 2/2/33) की व्याख्या करते हुए इन सभी दार्शनिकों ने जैन दर्शन के अनेकांतवाद की समीक्षा की है। मैं यहां उनकी समीक्षा कितनी उचित है या अनुचित है, इस चर्चा में नही जाना चाहता हूँ, क्योंकि उनमें से प्रत्येक ने कमोवेश रूप में शंकर का ही अनुसरण किया है। यहाँ मेरा प्रयोजन मात्र यह दिखाना है कि वे अपने मन्तव्यों की पुष्टि में किस प्रकार अनेकांतवाद का सहारा लेते हैं। जैन अनेकान्तदर्शन 521
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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