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________________ अनेकांतवाद की पुष्टि की गई है। क्योंकि अनेकांतवाद व्यष्टि में समष्टि और समष्टि में व्यष्टि का अन्तर्भाव मानता है। व्यक्ति के बिना जाति और जाति के बिना व्यक्ति की कोई सत्ता नहीं है। उनमें कथंचित् भेद और कथंचित अभेद है। सामान्य में विशेष और विशेष में सामान्य अपेक्षा भेद से निहित रहते हैं, यही तो अनेकांत है। सत्ता सत्-असत् रूप है। यह बात भी न्याय दर्शन में कार्य कारण की व्याख्या के प्रसंग में प्रकारान्तर से स्वीकृत है। पूर्वपक्ष के रूप में 31 यह कहा गया है कि उत्पत्ति के पूर्व कार्य को न तो सत् कहा जा सकता है, न असत् ही कहा जा सकता है, न उभय रूप ही कहा जा कसता है, क्योंकि दोनों में वैधर्म्य है। (नासन्न सन्नसदसत् सदस्सतोर्वेधात्)। ___ इसका उत्तर टीका में विस्तार से दिया गया है। किन्तु हम विस्तार में न जाकर संक्षेप में उनके उत्तर पक्ष को प्रस्तुत करेंगे। उनका कहना है कि कार्य उत्पत्ति पूर्व कारण रूप से सत् है? क्योंकि कारण के असत् होने से कोई उत्पत्ति ही नहीं होगी। पुनः कार्य रूप से वह असत् भी है, क्योंकि यदि सत् होता तो फिर उत्पत्ति का क्या अर्थ होता, अतः उत्पत्ति पूर्व कार्य कारण रूप से सत् और कार्य रूप से असत् होता है इस प्रकार कार्य उत्पत्ति, पूर्व सत्-असत् उभय रूप है, यह बात बुद्धि सिद्ध है। (विस्तृत विवेचना के लिए देखें न्यायसूत्र (4/1/48-50) की वैदिकमुनि हरिप्रसाद स्वामी की टीका)। मीमांसा दर्शन और अनेकांतवाद . जिस प्रकार अनेकांतवाद के सम्पोषक जैन-धर्म में वस्तु को उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक माना है, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन में भी सत्ता को त्रयात्मक माना है। उसके अनुसार उत्पत्ति और विनाश तो धर्मों के है, धर्मी तो नित्य है। उन उत्पत्ति और विनाश के भी पूर्व है अर्थात् नित्य है। वस्तुतः जो बात जैनदर्शन में द्रव्य की नित्यता और पर्याय की अनित्यता की अपेक्षा से कही गई है, वही बात धर्मी और धर्म की अपेक्षा से मीमांसा दर्शन में कही गई है। यहां पर्याय के स्थान पर धर्म शब्द का प्रयोग हुआ है। स्वयं कुमारिल भट्ट लिखते हैं - 1. वर्द्धमानक भंगे च रूचक क्रियते यद् । तदा पूर्वार्थिन शोकः प्रीतिश्चाभ्युत्तरार्थिनः।। 2. हेमर्थिनस्तु माध्यस्थं तस्माद्वस्तु भयात्मकम् । नोत्पाद स्थिति भंगानामभावे स्यानमतित्रयम् ।। 3. न नाशेन बिना शोको नोत्पादेन बिना सुखम् । स्थित्या बिना न माध्यास्थ्यं तेन सामान्य नित्यता। 520 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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