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कठोर संयम की (austerities) की साधना करे, जिसको किसी प्रकार की आसक्ति
और संलिप्तता (attachment and unawareness) न हो, जिसे कोई तनाव या उद्वेग उत्पन्न नहीं हो और जो आसक्ति दुःख तथा बैर से स्वयं को सदैव दूर रखे, वह समता या सामायिक को प्राप्त होता है। चित्त वृत्ति की समता (equanimity) का अभ्यास स्वयं में ही धर्म है। आचारांग में कहा गया है कि सभी श्रेष्ठ जन धर्म को चित्त की समता बताते हैं। इस प्रकार जैनों के लिए धार्मिक जीवन के परिपालन का अर्थ केवल चित्त की समता एवं निर्विकल्पता की प्राप्ति का अभ्यास है, अन्य कुछ नहीं है। उनके अनुसार यही सभी प्रकार की धार्मिक क्रियाओं का सार है और ये सब साधना की प्रकियाएँ केवल उसी को प्राप्त करने के लिए निर्दिष्ट हैं। केवल जैनियों में ही नहीं हिन्दुओं में भी समभाव की साधना (equarninity) के समर्थक अनेक संदर्भ मिलते है। गीता (2/48) में योग को समत्व की साधना के रूप में परिभाषित किया है। इसी प्रकार भागवत में भी समत्व की साधना ही को ईश्वर की उपासना कहा गया है। (समत्वं आराधं अच्युतस्य)।
जैन साधना का सम्पूर्ण ताना-बाना सामयिक की भूमिका पर आधारित है, सब धार्मिक आचार के नियम उसी के लिए बने हैं। आचार्य हरिभद्र ने बताया है कि जो समभाव की साधना का परिपालन करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होगी, चाहे वह बौद्ध हो अथवा अन्य किसी धर्म का अनुयायी हो। जैन धर्म ग्रन्थों में तो यह भी कहा गया है कि कोई कठोर तपस्या करे या एक माह में एक बार भोजन का कठोर व्रत करे या रोजाना करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओं का दान करे तो भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता जब तक कि समत्ववृत्ति (equaminity) की साधना नहीं हो, केवल समत्ववृत्ति या चित्त की निर्विकल्पता प्राप्त होने पर ही कोई मोक्ष प्राप्त कर सकता है। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं कि यदि चित्तवृत्ति की समता या निर्विकल्पता (equaminity of mind) नहीं है, तो एक साधक के लिये जंगल में रहना, कठोर तपस्या करना, अनेक व्रत-उपवास करना, धर्मग्रन्थों का पाठ करना, मौन व्रत रखना आदि सभी व्यर्थ है। अब प्रश्न यह है कि मन की एकाग्रता कैसे प्राप्त हो ? समभाव की साधना की शाब्दिक उद्घोषणा तब तक निरर्थक है जब तक कि उसका जीवनव्यापी गहन अभ्यास नहीं हो। इसके लिए पहले उन कारणों की जानकारी आवश्यक है, जो हमारे मन की एकाग्रता में बाधक है और उसके पश्चात् उनके निराकरण का साहसपूर्ण प्रयत्न हो। जब तक हम ममत्ववृत्ति या संलिप्तता का निराकरण नहीं करेंगे, तब तक चित्त की एकाग्रता या समत्वयोग या सामायिक की साधना संभव नहीं है।
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जैन दर्शन में तत्व और ज्ञान