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________________ as well as rightousness of one's mind, body and specch)। आचार्य कुंदकुंद ने भी समाहि (समाधि) पद का प्रयोग सामायिक के आशय से किया है जहाँ इसका अर्थ है चेतना की तनाव-मुक्त स्थिति अथवा आत्म-संयम की स्थिति सामान्य (atenticniess state of conciousness or a state of selfabsorption) सामान्य रूप से सामायिक शब्द का अर्थ है - ऐसा विशिष्ट आध्यात्मिक अभ्यास जिसके द्वारा व्यक्ति चित्त की स्थिरता को प्राप्त कर सके यह (Particular religious practice through which one can attain equanimity of mind) यह अपने आप में एक साध्य के साथ-साथ साधना भी है। साधना के रूप में यह चित्त की निर्विकल्प स्थिति को प्राप्त करने का अभ्यास है और साध्य के रूप में यह एक ऐसी स्थिति है, जिसमें व्यक्ति वैकल्पिक कामनाओं, आवेगों और उद्वेगों राग-द्वेष और इच्छओं की दौड़-धूप से पूर्णतः मुक्त रहता है। यह आत्मलीनता (Self-absorption) अथवा स्वयं की आत्म शान्ति (resting in-one's own self) की स्थिति है। ___ आवश्यक नियुक्ति (1046-1048) में कहा गया है कि सामायिक अपनी आत्मा का ही विशुद्ध रूप है और कुछ नहीं (nothing but one's own self in its pure form) है। इसी प्रकार समाधि की अवस्था की दृष्टि से भी सामयिक का अर्थ है- स्वयं के वास्तविक स्वभाव की प्रतीति (realisation of our own self in its real nature) यह एक ऐसी अवस्था है, जिसमें व्यक्ति ममत्व और संलिप्तता से पूर्णतः मुक्त रहता है (completely free from attachment and unawareness)। इस ग्रन्थ में आर्यभद्र ने सामायिक के विभिन्न पर्यायवाची शब्द दिए हैं (विशेषावश्यक भाष्य 3477-3483) जैसे - चित्त की स्थिरता (Eqmanimity), समता (equatity) पवित्रता (Holinise), सदाचार (rightousness), आत्मलीनता की स्थिति (state of self-absorption), शुद्धता (Purity), शांति (Peace), कल्याण (Welfare) और प्रसन्नता। अनुयोगद्वारसूत्र (127-128) आवश्यकनियुक्ति (804) और कुंदकुंद के नियमसार (122-133) में सामायिक की अनेक प्रकार से व्याख्या की गई है। यह कहा गया है कि जो व्यक्ति शब्दोच्चारण की क्रिया का त्याग करते हुए अनासक्ति के साथ स्वयं को जान लेता है उसे परम समता (supreme equanimity) प्राप्त हो जाती है जो समस्त हिंसक या अपवित्र कार्यों से विलग रहे, शरीर मन एवं वाणी के त्रिपक्षीय संयम की साधना करे और ज्ञानन्द्रियों को निरूद्ध करे, वही समता (equanimity) को प्राप्त करता है जो जड़-चेतन समस्त जीवधारियों के प्रति अपने समान (आत्मवत्) व्यवहार करता है वह समता को प्राप्त करता है। आगे यह कहा है कि जो आत्मनियंत्रण (Self control), व्रतपालन और जैन धर्मदर्शन 461
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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