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अपेक्षा से है। पतंजलि की योगपद्धति से वह कुछ भिन्न भी है। पतंजलि की योग साधना-पद्धति में धारणा का अर्थ है मन की एकाग्रता, जबकि जैन साहित्य में धारणा का अर्थ है अनुभवों का धारणा करना (Retention of ourexperiences)। पतंजलि की धारणा का आशय जैन संप्रदाय के ध्यान से बहुत कुछ मिलता जुलता है। 7. ध्यान
जैन परम्परा में सामान्यतः ध्यान का अर्थ है- किसी वस्तु या मानसिक संकल्पना पर मन की एकाग्रता (Concentration of mind on some objector a thought)। उनके अनुसार हमारे विचार और उनका कर्ता मन चंचल या अस्थिर है। मन के नियमन के द्वारा मन की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है। अतः जैनों के अनुसार ध्यान चार प्रकार के हो सकते हैं- 1. आर्त्तध्यान-सांसरिक इच्छाओं की पूर्ति के लिये मन की एकाग्रता 2. रौद्रध्यान-हिंसात्मक क्रियाओं के लिये मन की एकाग्रता 3. धर्मध्यान-उदार एवं उदात्त विचारों पर या स्वयं की और दूसरों की भलाई के विचार पर मन की एकाग्रता 4. शुक्लध्यान-मन शुक्लध्यान में अपनी एकाग्रता का क्षेत्र क्रमशः सीमित कर लेता है और अंततः विचार स्थिर तथा गतिरहित या निर्विकल्प हो जाते हैं। 8. समाधि
पतंजलि के अनुसार मन, वाणी और काया की विकल्प एवं गति रहित स्थिति समाधि है। दूसरे शब्दों में यह मन की ऐसी निर्विकल्प अवस्था है जिसमें स्वयं का बाह्य जगत् से संबन्ध टूट जाता है।
पतंजलि योग के तीन आतंरिक अंग धारणा, ध्यान और समाधि जैन मान्यता के ध्यान से ही जुड़े हुए हैं। धारणा और ध्यान को धर्म ध्यान की विभिन्न स्थितियों में समाहित किया जा सकता है और समाधि को शुक्ल-ध्यान में। अन्य प्रकार से हम पतंजलि के धारणा और ध्यान को जैन मान्यता के ध्यान के अंतर्गत मान सकते हैं और समाधि को जैन मान्यता के “कायोत्सर्ग" के अंतर्गत।
यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि पतंजलि योग-पद्धति में धारणा, यान और समाधि-इन तीनों को योग-साधना के आंतरिक अंग मान जाता है और आंतरिक अंग होने से वे एक दूसरे से स्वतंत्र नहीं हैं, लेकिन वे एक दूसरे से सम्बद्ध या अनुस्यूत हैं, क्योंकि धारणा के बिना ध्यान संभव नहीं है और ध्यान के बिना समाधि सभंव नहीं है।
यद्यपि इस आगम युग में अष्टांग योग के ध्यान और अन्य अंग जैनियों में प्रचलित थे, किन्तु तत्कालीन जैन साधना मुक्ति के त्रिपक्षीय या चतुःपक्षीय मार्ग में केन्द्रित थी - उदारणार्थ सम्यक्-दर्शन या सम्यक्-श्रद्धान (Right-Faith), जैन धर्मदर्शन
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