________________
बात भिन्न है कि तत्त्वार्थसूत्र और कसायपाहुड को प्रथम-द्वितीय शताब्दी का मानकर इन ग्रन्थों का काल तीसरी-चौथी शती माना जा सकता है। किन्तु इतना निश्चित है कि षट्खण्डागम, भगवती आराधना एवं मूलाचार के कर्ता तथा आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वाति से परवर्ती ही है, पूर्ववर्ती कदापि नहीं। आचार्य कुन्दकुन्द की विशेषता यह है कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती इन जैन चिन्तकों, माध्यमिकों एवं प्राचीन वेदान्तियों-विशेषरूप से गौड़पाद् के विचारों का लाभ उठाकर जैन आध्यात्म को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। मात्र यही नहीं उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की गुणस्थान, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि अवधारणाओं से पूर्णतया अवगत होकर भी शुद्धनय की अपेक्षा से आत्मा के सम्बन्ध में इन अवधारणाओं का स्पष्ट रूप से खण्डन किया है। यह प्रतिषेध तभी सम्भव था, जब उनके सामने ये अवधारणायें सुस्थिर होतीं।
हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि आध्यात्मिक विकास के इन विभिन्न वर्गों की संख्या के निर्धारण में उमास्वाति पर बौद्ध-परम्परा और योग-परम्परा का भी प्रभाव हो सकता है। मुझे ऐसा लगता है कि उमास्वाति ने आध्यात्मिक विशुद्धि की चतुर्विध, सप्तविध और दसविध वर्गीकरण की यह शैली सम्भवतः बौद्ध और योग परम्पराओं से ग्रहण की होगी। स्थविरवादी बौद्धों में सोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी , और अर्हत् ऐसी जिन चार अवस्थाओं का वर्णन है वे परिषह के प्रसंग में उमास्वाति की बादर सम्पराय, सूक्ष्म-सम्पराय, छह्मस्थवीतराग और जिनसे तुलनीय मानी जा सकती हैं। योगवाशिष्ठ में आध्यात्मिक विकास की ज्ञान की दृष्टि से जिन सात अवस्थाओं का उल्लेख है उन्हें ध्यान के सन्दर्भ में प्रतिपादित तत्त्वार्थसूत्र की सात अवस्थाओं से तुलनीय माना जा सकता है। इसी प्रकार महायान सम्प्रादाय में आध्यात्मिक विकास की जिन दस अवस्थाओं का चित्रण हैं, उन्हें निर्जरा के प्रसंग से उमास्वाति द्वारा प्रतिपादित दस अवस्थाओं से उन्हें निर्जरा की चर्चा के प्रसंग से उमास्वाति द्वारा प्रतिपादि दस अवस्थाओं से तुलनीय माना जा सकता है। इसी प्रकार आजीविकों द्वारा प्रस्तुत आठ अवस्थाओं से भी इनकी तुलना की जा सकती है। यद्यपि इस तुलनात्मक अध्ययन के सम्बन्ध में अभी गहन चिन्तन की अपेक्षा है, इस सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा अगले किसी लेख में करेंगे।
संदर्भ - 1. कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउछस जीवट्ठाण, पण्णत्ता, तं जहा-मिच्छादिट्ठी; सासायणसम्मादिट्ठी,
सम्मामिच्छादिट्ठी, अविरयसम्मादिट्ठी, विरयाविरए, पमत्तसंजए, अप्पमत्तसंजए, निअट्टिबायरे, अनिअट्टिबायरे, सुहुमसंपराएउवसामाए वा खवए वा, उवसंतमोहे, रवीणमोहे, सजोगीकेवली, अयोगी केवली।
- समवावांग (सम्पा. मधुकर मुनि), 14/95 जैन धर्मदर्शन
439