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दृष्टि से दर्शनमोह क्षपक को अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान के साथ योजित किया जाना चाहिए | क्षपक श्रेणी से विचार करने पर यह बात किसी सीमा तक समझ में आ जाती हैं, क्योंकि आठवें गुणस्थान से ही क्षपक श्रेणी प्रारम्भ होती है और आठवें गुणस्थान के पूर्व दर्शनमोह का पूर्ण क्षय मानना आवश्यक है। इसी प्रकार चारित्रमोह की दृष्टि से अपूर्वकरण (निवृत्ति बादर संपराय) को चरित्रमोह उपशमक कहा जा सकता है। क्षपक को सूक्ष्म संपराय से भी योजित किया जा सकता है, किन्तु उमास्वाति ने उपशान्त मोह और क्षीण मोह के बीच जो क्षपक की स्थिति रखी जाती है उसका युक्ति संगत समीकरण कर पाना कठिन है । क्योंकि ऐसी स्थिति में उपशान्त मोह नामक ग्यारहवें और क्षीण मोह नामक बारहवें गुणस्थान के बीच ही उसे रखा जा सकता है, किन्तु गुणस्थान सिद्धान्त में ऐसी बीच की कोई अवस्था नहीं है। सम्भवतः उमास्वाति दर्शनमोह और चारित्रमोह दोनों का प्रथम उपशम और फिर क्षय मानते होंगे । क्षीणमोह और जिन दोनों अवधारणों में समान हैं । सयोगी केवली को 'जिन' कहा जा सकता है । इस प्रकार क्वचित् - मतभेदों के साथ दस अवस्थाएं तो मिल जाती हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि, सास्वादन सम्यक् - मिथ्यादृष्टि और अयोगी केवली की यहां कोई चर्चा नहीं है । उपशम और क्षपक श्रेणी की अलग-अलग कोई चर्चा भी यहां नहीं है ।
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तत्त्वार्थसूत्र में आध्यात्मिक विकास का जो क्रम है, उसकी गुणस्थान सिद्धान्त से इस अर्थ में भिन्नता है कि जहां गुणस्थान सिद्धान्त में आठवें गुणस्थान से उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी से आरोहण की विभिन्नता को स्वीकार करते हुए भी यह माना है कि उपशम श्रेणी वाला क्रमशः 8वें, 9वें, एवं 10वें गुणस्थान से सीधा 12वें गुणस्थान में जाता है, जबकि उमास्वाति यह मानते प्रतीत होते हैं कि चाहे दर्शनमोह के उपशम और क्षय का प्रश्न हो या चारित्रमोह के उपशम या क्षय का प्रश्न हो- पहले उपशम होता है और फिर क्षय होता है । दर्शन मोह के समान चारित्र मोह का भी क्रमशः उपशम, उपशान्त, क्षपण और क्षय होता है । उन्होंने उपशम और क्षय को मानते हुए उनकी अलग-अलग श्रेणी का विचार नहीं किया है। उमास्वाति की कर्म-विशुद्धि की दस अवस्थाओं में प्रथम पांच का सम्बन्ध दर्शन मोह के उपशम और क्षपण से है तथा अन्तिम पांच का सम्बन्ध चारित्र मोह के उपशम, उपशान्त, क्षपण और क्षय से है । प्रथम भूमिका में सम्यक् दृष्टि उपशम से सम्यक् दर्शन प्राप्त करता है - ऐसे उपशम सम्यक् दृष्टि का क्रमशः 2 श्रावक और 3 विरत के रूप में चारित्रिक विकास तो होता है, किन्तु उसका सम्यक् दर्शन औपशामिक होता है, अतः वह उपशान्त दर्शन मोह होता है। ऐसा साधक चौथी
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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