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तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान - सिद्धान्त के बीज
तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज उसके नवें अध्याय में मिलते हैं। नवें अध्याय में सर्वप्रथम परिषहों के सम्बन्ध में आध्यात्मिक विकास की चर्चा हुई है, उसमें बताया गया है कि “ बादर - सम्पराय की स्थिति में 22 परिषह सम्भव होते हैं । सूक्ष्म सम्पराय और छह्मस्थ वीतराग (क्षीणमोह) में 14 परिषह होते हैं । सम्भव होते हैं। जिन भगवान् में 11 परिषह सम्भव होते हैं । "20 इस प्रकार यहां बादर-सम्पराय, सूक्ष्म- सम्पराय, छह्मस्थ वीतराग और जिन- इन चार अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है।
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पुनः ध्यान के प्रसंग में यह बताया गया है कि “अविरत, देशविरत और प्रमत्त संयत्त- इन तीन अवस्थाओं में आर्त्तध्यान का सद्भाव होता है । अविरत और देशविरत में रौद्रध्यान की उपस्थिति पायी जाती है । अप्रमत्तसंयत को धर्मध्यान होता है। साथ ही, यह उपशांत कषाय एवं क्षीण कषाय को भी होता है । शुक्लध्यान, उपशांत कषाय, क्षीणकषाय और केवली में सम्भव होता है ।"2" इस प्रकार यहां अविरत, देशविरत, प्रमत्त संयत, अप्रमत्त संयत, उपशान्तकषाय ( उपशान्त मोह), क्षीणकषाय (क्षीण मोह) ओर केवली ऐसी सात अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, पुनः कर्म निर्जरा (कर्म विशुद्धि) के प्रसंग में सम्यक्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, (चरित्रमोह) उपशमक, उपशांत (चरित्र) मोह, ( चरित्र मोह) क्षपक, क्षीण मोह और जिन ऐसी दस क्रमशः विकासमान स्थितियों का चित्रण हुआ है । 21 यदि हम अनन्त वियोजक को अप्रमत्त संयत, दर्शन मोह क्षपक को अपूर्वकरण (निवृत्तिबादर सम्पराय) और उपशमक ( चरित्र मोह - उपशमक) को अनिवृत्तिकरण और क्षपक को सूक्ष्म सम्पराय मानें तो इस स्थिति में यहां दसगुणस्थानों के नाम प्रकारान्तर से मिल जाते हैं । यद्यपि अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक, उपशांत- मोह तथा क्षपक आदि अवस्थाओं को उनके मूल भावों की दृष्टि से तो आध्यात्मिक विकास की इस अवधारणा से जोड़ा जा सकता है, किन्तु उन्हें सीधा-साधा गुणस्थान के चौखटे में समाहित करना कठिन है । क्योंकि गुणस्थान सिद्धान्त में तो चौथे गुणस्थान में ही अनन्तानुबन्धी कषायों का क्षयोपशम होता है । पुनः उपक्षम श्रेणी से विकास करने वाला तो सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में भी दर्शनमोह और अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम ही करता है, क्षय नहीं । अतः अनन्तवियोजक का अर्थ अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय मानने से उपशम श्रेणी की दृष्टि से बाधा आती है। सम्यक् - दृष्टि, श्रावक, एवं विरति के पश्चात् अनन्तवियोजक का क्रम आचार्य ने किस दृष्टि से रखा, यह भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है । तुलनात्मक जैन धर्मदर्शन
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