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गीता का दृष्टिकोण - स्वयं गीताकार ने भी यह संकेत किया है कि मुक्ति के लिए शुभाशुभ दोनों प्रकार के कर्मफलों से मुक्त होना आवश्यक है। श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं 'हे अर्जुन, तू जो भी कुछ कर्म करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ हवन करता है, जो कुछ दान देता है अथवा तप करता है वह सभी शुभाशुभ कर्म मुझे अर्पित कर दे अर्थात् उनके प्रति किसी प्रकार की आसक्ति या कर्तृत्व भाव मत रख। इस प्रकार सन्यास-योग से युक्त होने पर तू शुभाशुभ फल देने वाले कर्म बन्धन से छूट जावेगा। और मुझे प्राप्त होवेगा । गीताकार स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करता है कि शुभ कर्म और अशुभ कर्म दोनों ही बन्धन हैं और मुक्ति के लिए उनसे ऊपर उठना आवश्यक है, बुद्धिमान व्यक्ति शुभ और अशुभ या पुण्य और पाप दोनों को ही त्याग देता है। सच्चे भक्त का लक्षण बताते हुए पुनः कहा गया है कि जो शुभ और अशुभ दोनों का परित्याग कर चुका है अर्थात् जो दोनों से ऊपर उठ चुका है वह भक्तियुक्त पुरूष मुझे प्रिय है" । डॉ. राधकृष्णन ने गीता के परिचयात्मक निबन्ध में भी इसी धारणा को प्रस्तुत किया है। वे आचार्य कुन्दकुन्द के साथ समस्वर हो कर कहते हैं 'चाहे हम अच्छी इच्छाओं के बन्धन में बन्धे हो या बुरी इच्छाओं के, बन्धन तो दोनों ही हैं। इससे क्या अन्तर पड़ता है कि जिन जंजीरों में हम बन्धे हैं वे सोने की हैं या लोहे की । जैन दर्शन के समान गीता भी हमें यही बताती है कि प्रथमतः जब पुण्य कर्मों के सम्पादन द्वारा पाप कर्मों का क्षय दिया जाता है तदनन्तर वह पुरुष रागद्वेष के द्वन्द्व से मुक्त होकर दृढ़ निश्चयपूर्वक मेरी भक्ति करता है। इस प्रकार गीता भी नैतिक जीवन के लिए अशुभ कर्म से शुभ कर्म की ओर और शुभ कर्म से शुद्ध या निष्काम कर्म की ओर बढ़ने का संकेत देती है। गीता का अन्तिम लक्ष्य भी शुभाशुभ से ऊपर निष्काम जीवन दृष्टि का निर्माण है। पाश्चात्य दृष्टिकोण - पाश्चात्य आचार दर्शन में अनेक विचारकों ने नैतिक जीवन की पूर्णता के लिए शुभाशुभ से परे जाना आवश्यक माना है, ब्रेडले का कहना है कि नैतिकता हमें उससे परे ले जाती है। नैतिक जीवन के क्षेत्र में शुभ और अशुभ का विरोध बना रहता है, लेकिन आत्म-पूर्णता की अवस्था में यह विरोध नहीं रहना चाहिए। अतः पूर्ण आत्म-साक्षात्कार के लिए हमें नैतिकता के क्षेत्र (शुभाशुभ के क्षेत्र) से ऊपर उठना होगा। ब्रेडले ने नैतिकता के क्षेत्र से ऊपर धर्म (आध्यात्म) का क्षेत्र माना है, उसके अनुसार नैतिकता का अन्त धर्म में होता है। जहां व्यक्ति शुभाशुभ के द्वन्द्व से ऊपर उठकर ईश्वर से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। वे लिखते हैं कि अन्त में हम ऐसे स्थान पर पहुंच जाते हैं, जहां पर क्रिया एवं प्रतिक्रिया का अन्त होता है, यद्यपि सर्वोत्तम क्रिया सर्वप्रथम यहां से ही आरम्भ होती है। यहां पर जैन धर्मदर्शन
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