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________________ करता है और मैल की सफाई होने पर स्वयं अलग हो जाना है - वैसे ही पुण्य भी पाप रूप मल को अलग करने में सहायक होता है और उसके अलग हो जाने पर स्वयं भी अलग हो जाता है। जिस प्रकार एरण्ड बीज या अन्य रेचक औषधि मल के रहने तक रहती है और मल निकल जाने पर वह भी निकल जाती है वैसे ही पाप की समाप्ति पर पुण्य भी अपना फल देकर समाप्त हो जाते हैं। वे किसी भी नव कर्म संतति को जन्म नहीं देते हैं। अतः वस्तुतः व्यक्ति को अशुभ कर्म से बचना है। जब वह अशुभ (पाप) कर्म से ऊपर उठ जाता है उसका कर्म शुभ बन जाता है। शेष पर पूर्ण विजय पा जाने पर राग भी नहीं रहता है, अतः राग-द्वेष के अभाव में उससे जो कर्म निसृत होते हैं वे शुद्ध (ईर्यापथिक) होते हैं। पुण्य (शुभ) कर्म के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पुण्योपार्जन की उपरोक्त क्रियाएं भी जब अनासक्तभाव से की जाती हैं तो वे शुभ बन्ध का कारण न होकर कर्मक्षय (संवर और निर्जरा) का कारण बन जाती है। इसी प्रकार संवर और निर्जरा के कारण संयम तप जब आसक्तभाव एवं फलाकांक्षा (निदान अर्थात् उनके प्रतिफल के रूप में किसी निश्चित फल की कामना करना) से युक्त होते हैं तो वे कर्मक्षय अथवा निर्वाण का कारण न होकर बन्धन का ही कारण बनते हैं, चाहे उनका फल सुख के रूप में क्यों नहीं हो। जैन दर्शन में अनासक्त भाव या राग द्वेष से रहित होकर किया गया शुद्ध कार्य ही मोक्ष या निर्वाण का कारण माना गया है और आसक्ति से किया गया शुभ कार्य भी बन्धन का ही कारण समझा गया है। यहां पर गीता की अनासक्त कर्म योग की विचारणा जैन दर्शन के अत्यन्त समीप आ जाती है। जब दर्शन का अन्तिम लक्ष्य आत्मा को अशुभ से शुभ कर्म की प्राप्ति है। आत्मा का शुद्धोपयोग ही जैन नैतिकता का अन्तिम साध्य है। बौद्ध दृष्टिकोण - बौद्ध दर्शन भी जैन दर्शन के समान ही नैतिक साधना की अन्तिम अवस्था में पुण्य और पाप दोनों से ऊपर उठने की बात कहता है। भगवान बुद्ध सुत्तनिपात में कहते हैं-जो पुण्य और पाप को दूर कर शांत (सम) हो गया है इस लोक ओर परलोक (के यथार्थ स्वरूप) को जान कर (कम) रज रहित हो गया है जो अन्य मरण से परे हो गया है वह श्रमण स्थिर, स्थितात्मा (तथता) कहलाता है । समिय परिव्राजक द्वारा बुद्ध वंदना में पुनः इसी बात को दोहराया गया है। वह शुद्ध के प्रति कहता है जिस प्रकार सुन्दर पुण्डरीक कमल पानी में लिप्त नहीं होता उसी प्रकार आप पुण्य और पाप दोनों में लिप्त नहीं होते। इस प्रकार हम देखते है कि बौद्ध विचारणा का भी अन्तिम लक्ष्य शुभ और अशुभ से ऊपर उठना है। जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 408
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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