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उच्च-गोत्र एवं नीच-गोत्र के कर्म बन्ध के कारण - निम्न आठ बातों का अहंकार न करने वाला व्यक्ति भविष्य में प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेता है 1. जाति, 2. कुल, 3. बल (शरीरिक शक्ति), 4. रूप ( सौन्दर्य), 5. तपस्या (साधना), 6. ज्ञान (श्रुत), 7. लाभ (उपलब्धियां) और 8. स्वामित्व (अधिकार) । इनके विपरीत जो व्यक्ति उपर्युक्त आठ प्रकार का अहंकार करता है, वह नीचे कुल में जन्म लेता है । कर्मग्रन्थ के अनुसार भी अहंकार रहित गुणग्राही दृष्टि वाला, अध्ययन-अध्यापन में रुचि रखने वाला तथा भक्त उच्च - गोत्र को प्राप्त अध्ययन करता है । इसके विपरीत आचरण करने वाला नीच - गोत्र को प्राप्त करता है । तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार पर-निन्दा, आत्मप्रशंसा, दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन और असद्गुणों का प्रकाशन ये नीच गोत्र के बन्ध के हेतु हैं । इसके विपरीत पर-प्रशंसा, आत्म-निन्दा, सद्गुणों का प्रकाशन, असद्गुणों का गोपन और नम्रवृत्ति एवं निरभिमानता ये उच्च-गोत्र के बन्ध के हेतु हैं ।
गोत्र-कर्म का विपाक - विपाक (फल) दृष्टि से विचार करते हुए यह ध्यान रखना चाहिए कि जो व्यक्ति अहंकार नहीं करता, वह प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेकर निम्नोक्त आठ क्षमताओं से युक्त होता है- 1. निष्कलंक मातृ-पक्ष (जाति), 2. प्रतिष्टिठत पितृ-पक्ष (कुल), 3. सबल शरीर 4. सौन्दर्ययुक्त शरीर, 5. उच्च साधना एवं तंप-शक्ति, 6. तीव्र बुद्धि एवं विपुलज्ञान राशि पर अधिकार, 7. लाभ एवं विविध उपलब्धियाँ और 8. अधिकार, स्वामित्व एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति । लेकिन अहंकारी व्यक्तित्व उपर्युक्त समग्र क्षमताओं से अथवा इनमें से किन्हीं विशेष क्षमताओं से वंचित रहता है।
8. अन्तराय कर्म
अभीष्ट की उपलब्धि में बाधा पहुँचाने वाले कारण को अन्तराय कर्म कहते हैं । यह पाँच प्रकार के हैं
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1. दानान्तराय - दान की इच्छा होने पर भी दान नहीं किया जा सके,
2. लाभान्तराय - कोई प्राप्ति होने वाली हो, लेकिन किसी कारण से उसमें
बाधा आ जाना,
3. भोगान्तराय - भोग में बाधा उपस्थित होना, जैसे व्यक्ति सम्पन्न हो, भोजनगृह में अच्छा सुस्वादु भोजन भी हो लेकिन अस्वस्थता के कारण उसे मात्र खिचड़ी ही खानी पड़े,
4. उपभोगान्तराय - उपभोग की सामग्री के होने पर भी उपभोग करने में असमर्थता,
5. वीर्यन्तराय - शक्ति के होने पर भी पुरुषार्थ में उसका उपयोग नहीं किया जा सकना। (तत्त्वार्थसूत्र, 8, 14)
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान