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क्रान्तिकारी की भूमिका निभाई है, क्रान्तिकारी के दो कार्य होते हैं, एक तो समाज में प्रचलित विकृत मान्यताओं की समीक्षा करना और उन्हें समाप्त करना, किन्तु मात्र इतने से उसका कार्य पूरा नहीं होता है। उसका दूसरा कार्य होता है सत् मान्यताओं को प्रतिष्ठित या पुनः प्रतिष्ठित करना। हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने दोनों बातों को अपनी दृष्टि में रखा है।
उन्होंने अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण में देव, गुरु, धर्म, श्रावक आदि का सम्यक् स्वरूप कैसा होना चाहिए, इसकी भी विस्तृत व्याख्या की है। यद्यपि इस . निबन्ध की अपनी सीमा है अतः हमें अपने विस्तृत विवेचना के मोह का संवरण करना ही होगा। हरिभद्र ने जहाँ वेशधारियों की समीक्षा की है, वहीं आगमोक्त दृष्टि से गुरु कैसा होना चाहिये, इसकी विस्तृत विवेचना की है। हम उसके विस्तार में न जाकर संक्षेप में यही कहेंगे कि हरिभद्र की दृष्टि में जो पंच महाव्रतों, पांच समितियों, तीन गुप्तियों के पालन में तत्पर है जो जितेन्द्रिय, संयमी, परिष जयी, शुद्धाचरण करने वाला और सत्य मार्ग को बताने वाला है, वही सुगुरू है।
हरिभद्र के युग में गुरु के सम्बन्ध में एक प्रकार का वैयक्तिक अभिनिवेश विकसित हो गया था। कुलगुरु की वैदिक अवधारणा की भाँति प्रत्येक के आस-पास एक वर्ग एकत्रित हो रहा था, जो उन्हें अपना गुरु मानता था तथा अन्य को गुरू रुप में स्वीकार नहीं करता था। श्रावकों का एक विशेष समूह एक विशेष आचार्य को अपना गुरु मनता था- जैसा की आज भी देखा जाता है। हरिभद्र ने इस परम्परा में साम्प्रदायिकता के दुराभिनिवेश के बीज देख लिए थे। उन्हें यह स्पष्ट लग रहा था कि इससे साम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढ़ होंगे। समाज विभिन्न छोटे-छोटे वर्गों में बंट जाएगा। इसके विकास का दूसरा मुख्य खतरा यह था ... गुणपूजक जैन धर्म व्यक्ति पूजक बन जायेगा और वैयक्तिक रागात्मकता के कारण चारित्रिक दोषों के बावजूद भी एक विशेष वर्ग की एक विशेष आचार्य की इस परम्परा से रागात्मकता जुड़ी रहेगी। युग-द्रष्टा इस आचार्य ने सामाजिक विकृति को समझा और स्पष्ट रूप से निर्देश दिया-श्रावक का कोई अपना और पराया गुरू नहीं होता है, जिनाज्ञा के पालन में निरत सभी उसके गुरु हैं26 । काश! हरिभद्र के द्वारा कथित इस सत्य को हम आज भी समझ सकें तो समाज की टूटी हुई कड़ियों को पुनः जोड़ा जा सकता है।
संदर्भ - 1. मग्गो मग्गो लोए भणति, सव्वे वि मग्गणा रहिया। -सम्बोधप्रकरण 1/4 पूर्वार्ध 2. परमप्प मग्गणा जत्थ तम्मग्गो मुक्ख मग्गुत्ति। -सम्बोधप्रकरण 1/4 उत्तरार्ध 3. जत्थ य विसय कसायच्चागो मग्गो हविज्ज णो अण्णो। -वही, 1/5 पूर्वार्ध
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान