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जीवन को सर्वतोभावेन बांछनीय और रक्षणीय माना गया तो दूसरी ओर जैविक मूल्यों के निषेध से जीवन के प्रति एक ऐसी निषेधात्मक दृष्टि का विकास हुआ जिसमें शारीरिक मूल्यों मागों का ठुकराना ही जीवन लक्ष्य मान लिया गया और देह-दण्डन ही तप-त्याग और अध्यात्म के प्रतीक बन गये। यद्यपि दैहिक मूल्यों की उपलब्धि हेतु कर्म आवश्यक थे किन्तु जब मनुष्य ने यह देखा कि दैहिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए उसके वैयक्तिक प्रयासों के बावजूद भी उनकी पूर्ति या अपूर्ति किन्हीं अलौकिक प्राकृतिक शक्तियों पर निर्भर है तो वह देववादी और ईश्वरवादी बन गया है। विश्वः व्यवस्था और प्राकृतिक शक्तियों के नियन्त्रकतत्व के रूप में उसने ईश्वर की कल्पना की और उसकी कृपा की आकांक्षा करने लगा। इसके विपरीत निवर्तक धर्म व्यवहार में नैष्कर्म्यता समर्थक होते हुए भी कर्म सिद्धान्त के प्रति आस्था के कारण यह मानने लगे कि व्यक्ति का बन्धन और मुक्ति स्वयं उसके कारण है अतः निवर्तक धर्म पुरूषार्थवाद और वैयक्तिक प्रयासों पर आस्था रखने लगा अनीश्वरवाद, पुरूषार्थवाद और कर्म सिद्धान्त उसके प्रमुख तत्त्व बन गये। साधना के क्षेत्र में जहाँ प्रवर्तक में अलौकिक देवी शक्तियों की प्रसन्नता के निर्मित कर्मकाण्ड और बाह्य विधि-विधानों (यज्ञ-याग) का विकास हुआ और आन्तरिक शुद्धि और सदाचारी जीवन की अपेक्षा कर्म -काण्ड का सम्पादन ही स्वर्ग-साधन माने जाने लगा, वहीं निवर्तक धर्मों में चित्त-शुद्धि और सदाचार पर अधिक बल दिया तथा विधि-विधानों की औपचारिकता एवं कर्म-काण्ड के सम्पादन को अनावश्यक माना।
सांस्कृतिक प्रदेशों की दृष्टि से प्रर्वतक धर्म-वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मण संस्था (पुरोहित वर्ग) के प्रमुख समर्थक रहे। ब्राह्मण मनुष्य और ईश्वर के बीच एक मध्यस्थ का कार्य करने लगा तथा उसने अपनी आजीविका को सुरक्षित बनाये रखने के लिए एक ओर समाज जीवन में अपने वर्चस्व को स्थापित रखना चाहा तो दूसरी
ओर धर्म को कर्मकाण्ड और जटिल विधि-विधानों की औपचारिकता में उलझा दिया। परिणामस्वरूप ऊँच-नीच का भेद-भाव, जातिवाद और यज्ञ-याग का विकास हुआ। किन्तु इसके विपरीत निवर्तक धर्म ने संयम, ध्यान और तप की एक सरल साधना पद्धति का विकास किया और वर्णव्यवस्था, जातिवाद और ब्राह्मण संस्था के वर्चस्व का विरोध किया। उसमें ब्राह्मण संस्था के स्थान पर श्रमण संघों का विकास हुआ-जिसमें सभी जाति और गण के लोगों को समान स्थान मिला। राज्य संस्था की दृष्टि से जहाँ प्रवर्तक धर्म राजतन्त्र और राठे शाठ्यं समाचरेत की दण्ड नीति का समर्थक रहे, वहाँ निवर्तक जनतन्त्र और आत्मोत्सर्ग को दण्ड नीति के समर्थक रहे। जैन धर्मदर्शन
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