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(5) ईश्वरवादी
(5) अनीश्वरवादी। (6) ईश्वरीय कृपा पर विश्वास (6) वैयक्तिक प्रयासों पर विश्वास
कर्म-सिद्धान्त का समर्थक (7) साधना के वाह्य साधनों पर बल (7) आन्तरिक विशुद्धता पर बल (8) जीवन का लक्ष्य स्वर्ग एवं ईश्वर (8) जीवन का लक्ष्य मोक्ष निर्वाण की के सान्निद्य की प्राप्ति
प्राप्ति। (सांस्कृतिक प्रदेय)
(सांस्कृतिक प्रदेय) (9) वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद का (9) जातिवाद का विरोध वर्ण-व्यवस्था जन्मना आधार पर समर्थन
का केवल कर्मणा आधार पर समर्थन (10) ग्रहस्थ-जीवन की प्रधानता (10) संन्यस्त जीवन की प्रधानता (11) सामाजिक जीवन शैली (11) एकाकी (व्यक्ति प्रधान)जीवन शैली (12) राजतन्त्र का समर्थन (12) जनतन्त्र का समर्थन (13) व्यक्ति की स्वतन्त्र सत्ता का (13) सदाचारी की पूजा
अभाव (शक्तिशाली की पूजा) (14) जटिल विधि-विधानों एवं बाह्य (14) ध्यान और तप का प्रभुत्व (सरल कर्म-काण्डों का प्रभुत्व
साधना पद्धति) (15) ब्राह्मण संस्था (पुरोहित-वर्ग) का (15) श्रमण संघों (साधक संघों) का विकास
विकास (16) 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' की दण्ड (16) शत्रु के प्रति अनुकम्पा और नीति
आत्मोत्सर्ग दण्ड नीति (17) उपासना-मूलक
(17) समाधि मूलक प्रवर्तक धर्म में प्रारम्भ में जैविक मूल्यों की प्रधानता रही, वेदों में जैविक आवश्यताओं की पूर्ति से सम्बन्धित प्रार्थनाओं के स्वर अधिक मुखर हुए हैं। उदाहरणार्थ - हम सौ वर्ष जीवें, हमारी सन्तान बलिष्ठ होवे, हमारी गायें अधिक दूध देवें, वनस्पति प्रचुर मात्रा में हो आदि। इसके विपरीत निवर्तक धर्म जैविक मूल्यों के प्रति एक निषेधात्मक रूप अपनाते हैं, वे सांसारिक जीवन की दुःखमयता का राग अलापते हैं। उनकी दृष्टि में शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दुःखों का सागर है। अतः ये संसार और शरीर दोनों से ही मुक्ति को जीवन लक्ष्य घोषित करते हैं। दैहिक आवश्यकताओं का निषेध, अनासक्ति, विराग और आत्म-सन्तोष ही उनके लिए सर्वोच्च मूल्य है। एक ओर जैविक मूल्यों की प्रधानता का परिणाम यह हआ कि प्रवर्तक धर्म में जीवन के प्रति एक विधायक दृष्टि का निर्माण हुआ तथा
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान