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हैं कि 'वृक्ष' पद के प्रयोग से शाखा, पल्लव आदि से युक्त अर्थ का बोध होता है । उस अर्थ बोध से ‘तिष्ठति' (खड़ा है) इत्यादि पद स्थान आदि विषय का सामर्थ्य से बोध कराते हैं। स्थान आदि के अर्थबोध में 'वृक्ष' पद की साक्षात् प्रवृत्ति नहीं होने से उसे उस अर्थ-बोध का कारण नहीं माना जा सकता है । यदि यह माना जाए की वृक्षपद 'तिष्ठति' पद के अर्थ-बोध में परम्परा से अर्थात् परोक्षरूप से कारण होता है तो मानना इसलिए समुचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर यह भी मानना होगा कि हेतु वचन की साध्य की प्रतिपत्ति होती है और ऐसी स्थिति में अनुमान - ज्ञान भी शाब्दिक कहलायेगा, जो कि तर्कसंगत नहीं है ।
पुनः मीमांसक प्रभाकर यदि यह कहें कि हेतुवाचक शब्द से होने वाली तु की प्रतीति ही शब्द ज्ञान है, शब्द से ज्ञात हेतु के द्वारा जो साध्य का ज्ञान होता है उसे शाब्दिक ज्ञान न मानकर अनुमान ही मानना होगा अन्यथा अतिप्रसंग दोष होगा तो जैन दार्शनिक प्रत्युत्तर में कहेंगे कि फिर वृक्ष शब्द से स्थानादि की प्रतीति में भी अतिप्रसंग दोष तो मानना होगा। क्योंकि जिस प्रकार हेतु शब्द का व्यापार अपने अर्थ (विषय) की प्रतीति कराने तक ही सीमित है उसी प्रकार वृक्ष शब्द को भी अपने अर्थ की प्रतीति तक ही सीमित मानना होगा ।
दूसरी आपत्ति यह है कि विशेष्यपद विशेष्य का विशेषण-सामान्य से, या विशेष- विशिष्ट से या विशेषण- सामान्य और विशेष (उभय) से अन्वित कहता है । प्रथम विकल्प अर्थात् विशेष्य विशेषण सामान्य से अन्वित करके होता है ? यह मानने पर विशिष्ट वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति सम्भव नहीं है- क्योंकि विशेष्य पद का सामान्य- विशेषण से अन्वित होने पर विशेष - वाक्यार्थ का बोध सम्भव नहीं होगा । दूसरा विकल्प मानने पर निश्चयात्मक ज्ञान नहीं होगा- क्योंकि ( मीमांसकों के अनुसार) शब्द से जिसका निर्देश किया गया है, ऐसे प्रतिनियत विशेषण से अपने उक्त विशेष्य में अन्वय करने में संशय उत्पन्न होगा क्योंकि विशेष्य में दूसरे अनेक विशेषण भी सम्भव हैं, अतः अपने इस विशेष्य में अमुक विशेषण ही अन्वित है, ऐसा निश्चय नहीं हो सकेगा । यदि पूर्वपक्ष अर्थात् मीमांसक प्रभाकर की ओर से यह कहा जाये कि वक्ता के अभिप्राय से प्रतिनियत विशेषण का उसे विशेष्य में अन्वय हो जाता है तो यह कथन भी समीचीन नहीं है क्योंकि जिस पुरुष के प्रति शब्द का उच्चारण किया गया है उसे तो वक्ता का अभिप्राय ज्ञात नहीं होता है । अतः विशेषण का निर्णय सम्भव नहीं होगा । यदि यह कहा जाये कि वक्ता को अपने अभिप्राय का बोध होता ही है अतः वह तो प्रतिनियत विशेष का निश्चय कर ही लेगा । किन्तु ऐसा मानने पर शाब्दिक कथन करना अनावश्यक होगा; क्योंकि शब्द का कथन दूसरों को अर्थ की प्रतिपत्ति कराने के लिए होता है स्वयं अपने लिए नहीं ।
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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