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माना जा सकता है तो उनका प्रत्युत्तर यह होगा कि ऐसी स्थिति में अन्वित प्रथम के द्वारा जो प्रतिपत्ति (अर्थबोध) हो चुकी है, वाक्य के अन्य पदों के द्वारा मात्र उसकी पुनरूक्ति होगी, अतः पुनरूक्ति का दोष तो होगा ही। यद्यपि यहाँ अपने बचाव के लिए अन्विताभिधानवादी यह कह सकते हैं कि प्रथम पद के द्वारा जिस वाक्यार्थ का प्रधान रूप से प्रतिपादन हुआ है, अन्य पद उसके सहायक के रूप में गौण रूप से उसी अर्थ का प्रतिपादन करते हैं। अतः यहाँ पुनरूक्ति का दोष नहीं होता है, किन्तु जैनों को उनकी यह दलील मान्य नहीं है।
अन्विताभिधानवादी प्रभाकर की यह मान्यता भी समुचित नहीं है कि पूर्व पदों के अभिधेय अर्थों से अन्वित अन्तिम पद उच्चारण से ही वाक्यार्थ का बोध होता है। इस सम्बन्ध में जैन तार्किक प्रभाचन्द्र का कहना है कि जब सभी पद परस्पर अन्वित हैं तो फिर यह मानने का क्या आधार है कि केवल अन्तिम पद के अन्वित अर्थ की प्रतिपत्ति से ही वाक्यार्थ का बोध होता है और अन्य पदों के अर्थ की प्रतिपत्ति से वाक्यार्थ का बोध नहीं होता है।
प्रभाकर अपने अन्विताभिधानवाद के पक्ष में यह तर्क दे सकते हैं कि उच्चार्यमान पद का अभिधीयमानपद (जाना गया) से अन्वित न होकर गम्यमान अर्थात् पदान्तरों से गोचरीकृत पद से अन्वित होता है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक पूर्व-पूर्व पद अपने उत्तरपद से अन्वित होता है, अतः किसी एक पद से ही वाक्यार्थ का बोध होना सम्भव नहीं होगा। उनकी इस अवधारणा की समालोचना में जैनों का तर्क यह है कि प्रत्येक पूर्वपद का अर्थ केवल अपने उत्तरपद से अन्वित होता है ऐसा मानना उचित नहीं है क्योंकि अन्वय सम्बद्धता सापेक्ष होती है, अतः उत्तरपद भी पूर्वपद से अन्वित होगा। अतः केवल अन्तिम पद से ही वाक्यार्थ का बोध इस अन्विताभिधानवाद सिद्धान्त की दृष्टि से तर्क-संगत नहीं कहा जा सकता है।
__ इस सम्बन्ध में मीमांसक प्रभाकर ने कहा है कि पदों के दो कार्य होते हैं प्रथम-अपने अर्थ का कथन करना और दूसरा पदान्तर के अर्थ में गमक व्यापार अर्थात् उनका स्मरण कराना। अतः अन्विताभिधानवाद मानने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए। क्योंकि पद-व्यापार से अर्थ-बोध समान होने पर भी किसी को अभिधीयमान और किसी को गम्यमान मानना उचित नहीं है।
पुनः प्रभाचन्द्र का प्रश्न यह है कि बुद्धिमान व्यक्ति पद का प्रयोग पद के बोध के लिए करते हैं या वाक्यार्थ बोध के लिए। पद के अर्थ बोध के लिए तो कर नहीं सकते हैं क्योंकि पद प्रवृत्ति का हेतु नहीं हैं। यदि दूसरा विकल्प कि पद का प्रयोग वाक्य के अर्थबोध के लिए करते हैं- यह माना जावे तो इससे अन्विताभिधानवाद की ही पुष्टि होगी। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य प्रभाचन्द्र कहते जैन ज्ञानदर्शन
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