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________________ का होता है, अनन्वितों का नहीं होता है इसके प्रत्युत्तर में अपने अभिहितान्वयवाद के समर्थन हेतु कुमारिल यह तर्क दे सकते हैं कि लोक व्यवहार एवं वेदों में वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति के लिए निरंश शब्द/पद का प्रयोग होता है, केवल उनकी धातु, लिंग, विभक्ति या प्रत्यय का नहीं; धातु, लिंग, विभक्ति, प्रत्यय आदि तो उनकी व्युत्पत्ति समझाने के लिए उनसे पृथक किये जाते हैं। एक शब्द एक वर्ण के समान अन्वयव (निरंश) होता है, उसके अर्थ को समझने के लिए कल्पना के द्वारा उसके अवयवों को एक दूसरे से पृथक किया जाता है। कुमारिल के इस तर्क के विरूद्ध प्रभाचन्द्र का कहना है कि जिस आधार शब्द को अपने अर्थबोध के लिए निरंश या अखण्ड इकाई माना जा सकता है उसी आधार पर वाक्य को भी निरंश माना जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि वाक्य की संरचना को स्पष्ट करने के लिए शब्दों को (कल्पना में) पृथक किया जाता है। वस्तुतः वाक्य अखण्ड इकाई है। लोक व्यवहार में एवं वेदों में वाक्यों का प्रयोग इसलिए किया जाता है कि पदार्थों की प्राप्ति या अप्राप्ति के लिए क्रिया की जा सके। वाक्य ही क्रिया का प्रेरक होता है, पद नहीं। अतः वाक्य एक इकाई है। इस प्रकार प्रभाचन्द्र इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जिस प्रकार शब्द पद से धातु, लिंग, प्रत्यय आदि आंशिक रूप से भिन्न और आंशिक रूप से अभिन्न होते हैं उसी प्रकार पद भी वाक्य से आंशिक रूप से भिन्न और आंशिक रूप से अभिन्न होता है। पद अपने वाक्य के घटक पदों से अन्वित या सम्बद्ध होता है और अन्य वाक्य के घटक पदों से अनन्वित, असम्बद्ध या भिन्न (अनन्वित) होता है। द्रव्य वाक्य में शब्द अलग-अलग होते हैं, किन्तु भाव वाक्य (बुद्धि) में वे परस्पर सम्बन्धित या अन्वित होते हैं। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि चाहे वाक्यों से पथक शब्दों का अपना अर्थ होता हो, किन्तु जब वे वाक्य में प्रयुक्त किये गये हों, तब उनका वाक्य से स्वतन्त्र कोई अर्थ नहीं रह जाता है। उदाहरण के रूप में शतरंज खेलते समय उच्चरित वाक्य 'राजा मर गया' या 'मैं तुम्हारे राजा को मार दूंगा' में पदों के वाक्य से स्वंतत्र अपने निजी अर्थ से वाक्यार्थ बोध में कोई सहायता नहीं मिलती है। यहाँ सम्पूर्ण वाक्य का एक विशिष्ट अर्थ होता है जो प्रयुक्त शब्दों/पदों के पृथक अर्थों पर बिलकुल ही निर्भर नहीं करता है। अतः यह मानना कि वाक्यार्थ के प्रति अनन्वित पदों के अर्थ ही कारणभूत हैं, न्यायसंगत नहीं है। अन्विताभिधानवाद (पूर्वपक्ष) मीमांसा दर्शन के दूसरे प्रमुख आचार्य प्रभाकर के मत को अन्विताभिधानवाद कहा गया है। जहाँ कुमारिल भट्ट अपने अभिहितान्वयवाद में यह मानते हैं कि वाक्यार्थ के बोध में पहले पदार्थ अभिहित होता हो और उसके बाद जैन ज्ञानदर्शन 271
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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