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4. तात्पर्य - वक्ता के अभिप्राय को तात्पर्य कहते हैं । नैयायिकों के अनुसार यह भी वाक्यार्थ के बोध की आवश्यक शर्त है। बिना वक्ता के अभिप्राय को समझे वाक्यार्थ का सम्यक् निर्णय सम्भव नहीं होता है । विशेष रूप से तब जब कि वाक्य में प्रयुक्त कोई शब्द द्वयार्थक हों, जैसे 'सैन्ध', 'नव' । इसी प्रकार जब कोई शब्द किसी विशिष्ट अर्थ में या व्यंग्य रूप में प्रयुक्त किया गया हो या फिर वाक्य में कोई पद अव्यक्त रह गया हो । विभक्ति प्रयोग ही वक्ता के तात्पर्य को समझने का एक आधार होता है ।
संक्षेप में, पदों को सुनने से प्रथम अनन्वित (असम्बन्धित) पदार्थ उपस्थित होते हैं, फिर आकांक्षा, योग्यता, सन्निधि और तात्पर्य अर्थात् विभक्ति-प्रयोग के आधार पर उनके परस्पर सम्बन्ध का बोध होकर वाक्यार्थ का बोध होता है । यही अभिहितान्वयवाद है ।
अभिहितान्वयवाद की समीक्षा
जैन तार्किक प्रभाचन्द्र अपने ग्रन्थ 'प्रमेयकमलमार्तण्ड'' में कुमारिल भट्ट के अभिहितान्वयवाद की समीक्षा करते हुए लिखतें हैं कि यदि वाक्य को सुनकर प्रथम परस्पर असम्बन्धित या अनन्वित पदार्थों का बोध होता है और फिर उनका पारस्परिक सम्बन्ध या अन्वय ज्ञात होता है तो प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उनका यह अन्वय (सम्बद्धीकरण किस आधार पर होता है? क्या वाक्य से बाह्य किन्हीं अन्य शब्दों / पदों के द्वारा इनका अन्वय या पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित होता है या बुद्धि (ज्ञान) के द्वारा इनका अन्वय होता हैं ? प्रथम विकल्प मान्य नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण पदों के अर्थों को विषय करने वाला ऐसा कोई अन्वय का निमित्त भूत अन्य शब्द ही नहीं है, पुनः जो शब्द / पद वाक्य में अनुपस्थित है, उनके द्वारा वाक्यस्थ पदों का अन्वय नहीं हो सकता है । यदि दूसरे विकल्प के आधार पर यह माना जाये कि ये बुद्धि के द्वारा अन्वित होते हैं या बुद्धितत्व इनमें अन्वय/सम्बन्ध स्थापित करता है तो इससे कुमारिल का अभिहितान्वयवाद सिद्ध न होकर उसका विरोधी सिद्धान्त अभिहितान्वयवाद ही सिद्ध होता हैं क्योंकि पदों के परस्पर अन्वित रूप में देखनेवाली बुद्धि तो स्वयं ही भाववाक्यरूप है । यद्यपि कुमारिल की ओर से यह कहा जा सकता है कि चाहे वाक्य अपने परस्पर अन्वित पदों से भिन्न नहीं हो क्योंकि वह उन्हीं से निर्मित होता है, किन्तु उसके अर्थ का बोध तो उन अनन्वित पदों के अर्थ के बोध पर ही निर्भर करता है, जो सापेक्ष बुद्धि में परस्पर सम्बन्धित या अन्वित प्रतीत होते हैं । इस सम्बन्ध में प्रभाचन्द्र का तर्क यह है कि पद अपने धातु, लिंग विभक्ति, प्रत्यय आदि से भिन्न नहीं है क्योंकि जब वे कहे जाते हैं तब अपने अवयवों सहित कहे जाते हैं और उनके अर्थ का बोध उनके परस्पर अन्वित अवयवों के बोध से होता है अर्थात् हमें जो बोध होता है अन्वितों
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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