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________________ सप्तभंगी और त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र वर्तमान युग में पाश्चात्य तर्कशास्त्र के विचारकों में ल्यूकसाइविक ने एक नयी दृष्टि दी है, उसके अनुसार तार्किक निर्णयों में केवल सत्य, असत्य ऐसे दो मूल्य ही नहीं होते, अपितु सत्य, असत्य और सम्भावित सत्य ऐसे तीन मूल्य होते हैं। इसी सन्दर्भ में डॉ. एस. एस वारलिंगे पांडे तथा संगमलाल पाण्डे ने जैन न्याय को त्रिमूल्यात्मक सिद्ध करने के प्रयास क्रमशः जयपुर एवं पूना की एक गोष्ठी में किये थे । यद्यपि जहाँ तक जैन न्याय या स्याद्वाद के सिद्धान्त का प्रश्न है उसे त्रिमूल्यात्यात्मक माना जा सकता है क्योंकि जैन दार्शनिकों ने प्रमाण नय और दुर्नय ऐसे तीन रूप माने हैं, उनमें प्रमाण सत्य का, नय आंशिक सत्य का और दुर्नय असत्य के परिचायक हैं । पुनः जैन दार्शनिकों ने प्रमाण वाक्य और नय वाक्य ऐसे दो प्रकार के वाक्य मानकर प्रमाण वाक्य को सकलादेश (सुनिश्चित सत्य या पूर्ण सत्य ) और नय वाक्य को विकलादेश ( सम्भावित सत्य या आंशिक सत्य ) कहा है। वाक्य को न सत्य कहा जा सकता है और न असत्य । अतः सत्य और असत्य के मध्य एक तीसरी कोटि आंशिक सत्य या सम्भावित सत्य मानी जा सकती है। वस्तुतत्व की अनन्त धर्मात्मकता एवं स्याद्वाद सिद्धांत भी सम्भावित सत्यता के समर्थक हैं क्योंकि वस्तुतत्व अनन्त धर्मात्मकता अन्य सम्भावनाओं को निरस्त नहीं करती है और स्याद्वाद उन कथित सत्यता के अतिरिक्त अन्य सम्भावित सत्यताओं को स्वीकार करता है। इस प्रकार जैन दर्शन की वस्तुतत्व की अनन्त धर्मात्मकता तथा प्रमाण, नय और दुर्नय की धारणाओं के आधार पर स्याद्वाद सिद्धांत त्रिमूल्यात्मक तर्क शास्त्र (Three Valued Logic) या बहुमूल्यात्मक शास्त्र का समर्थक माना जा सकता है, किन्तु जहां तक सप्तभंगी का प्रश्न है उसे त्रिमूल्यात्मक नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसमें नास्ति नामक भंग एवं अवक्तव्य नामक भंग क्रमशः असत्य एवं अनियतता (Flase & Indeterminate) के सूचक नहीं हैं । सम्भंगी का प्रत्येक भंग सत्य मूल्य सूचक है यद्यपि जैन विचारकों ने प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी के रूप में सप्तभंग के दो रूप माने हैं, उसके आधार पर यहां कहा जा सकता है कि प्रमाण सप्तभंगी के सभी भंग सुनिश्चत सत्यता और नय सप्तभंगी के सभी भंग सम्भावित या आंशिक सत्यता का प्रतिपादन करते हैं । असत्य का सूचक तो केवल दुर्नय ही है । अतः सप्तभंगी त्रिमूल्यात्मक नहीं है । संक्षेप में स्याद्वाद सिद्धांन्त की तुलना त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र से निम्न रूप में की जा सकती है । जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 248
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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