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________________ व्यापी होता है जबकि नय सप्तभंगी का विकल्पादेशी या अशव्यापी होता है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में पूर्ण व्यापी वाक्यों के उद्देश्य को व्याप्त और अंशव्यापी वाक्यों के उद्देश्य को अव्याप्त माना जाता है - जैन परम्परा ने भी इन्हें क्रमशः सकलादेशी और विकलादेशी कहकर इस पद - व्याप्ति को स्वीकार किया है। केवल अन्तर यह है कि पारम्परिक तर्क शास्त्र में जहां निषेधित विधेय सदैव ही पूर्ण व्यापी माना जाता है वहां जैन परम्परा में विधेय का विधान और निषेध दोनों ही अंशव्यापी होंगे क्योंकि स्याद्वादी दृष्टि से विधेय निषेध भी निरपेक्ष नहीं होगा। आधुनिक प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र की दृष्टि से प्रमाण वाक्य और नय वाक्य का स्वरूप निम्न होगा। प्रतीक ध" - अनन्तधर्मात्मकता या अनंतधर्मी अ - अपेक्षाओं की अनंतता 3- कम से कम एक 2- अंतर्भूतता प्रमाणवाक्य का प्रतीकात्मक स्वरूप ध- 5 अ ध उवि है। व्याख्या __ अनन्तधर्मात्मकता में अनंत अपेक्षाएं अन्तर्भूत हैं, उनमें कम से कम एक अपेक्षा ऐसी है कि अनंत धर्मी उद्देश्य 'क' विधेय 'ख' है। उदाहरण __ अनन्तधर्मी आत्मा में अनन्त अपेक्षाएं अन्तर्भूत हैं उसमें से कम से कम एक द्रव्य अपेक्षा ऐसी है कि आत्मा नित्य है। नय वाक्य प्रतीकात्मक रूप - अ, उ, वि, है। व्याख्या कम से कम एक अपेक्षा ऐसी है कि उ 'क' वि 'ख' है। उदाहरण कम से कम द्रव्य अपेक्षा है कि उसके अनुसार आत्मा नित्य है। इस प्रतीकीकरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सकलादेशी प्रमाण वाक्यों में बल वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता (सम्भावित मूल्य) पर होता है जबकि विकलादेशी वाक्यों में बल उस अपेक्षा पर होता है जिससे कथन किया जाता है। इन्ही वाक्यों के आधार पर प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी की रचना की जा सकती है। विस्तार भय से हम उसमें नहीं जाना चाहते है। जैन ज्ञानदर्शन 247
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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