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आचारदर्शन के क्षेत्र में नैश्चयिक एवं व्यवहारिक दृष्टिकोणों की तुलना एवं समालोचना
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर तत्वज्ञान के क्षेत्र में प्रयुक्त नैश्चयिक दृष्टि (पारमार्थिक दृष्टि) की अपेक्षा आचारलक्षी नैश्चयिक दृष्टि की यह विशेषता है कि जहाँ तत्वज्ञान के क्षेत्र में नैश्चयिक दृष्टि प्रतिपादित सत्ता (परम तत्व) का स्वरूप विभिन्न दर्शनों में भिन्न-भिन्न है वहां आचारलक्षी नैश्चयिक दृष्टि से प्रतिपादित निश्चय आचार (पारमार्थिक नैतिकता) सभी मोक्षलक्षी दर्शनों में एक रूप ही है। आचरण के नियमों का बाह्यपक्ष या आचरण की शैली भिन्न-भिन्न होने पर भी उसका आन्तर पक्ष या लक्ष्य सभी दर्शनों में समान है। विभिन्न मोक्षलक्षी दर्शनों से नैतिक आदर्श, मोक्ष का स्वरूप, तत्वदृष्टि भिन्न होते हुए भी लक्ष्य दृष्टि से एक ही है और इसी हेतु की एकरूपता के कारण आचरण का नैश्चयिक स्वरूप भी एक ही है। पं. सुखलाल जी लिखते हैं 'यद्यपि जैनेतर सभी दर्शनों में निश्चयदृष्टि-सम्मत तत्वनिरूपण एक नहीं है तथापि सभी मोक्षलक्षी दर्शनों में निश्चयदृष्टि-सम्मत आचार व चरित्र एक ही है, भले ही परिभाषा या वर्गीकरण आदि भिन्न हो।
जहाँ तक जैन और बौद्ध आचादर्शन की तुलना का प्रश्न है, दोनों ही काफी निकट हैं। बौद्धदर्शन भी मोक्षलक्षी दर्शन है, वह समस्त नैतिक समाचरण का मूल्यांकन उसी के आधार पर करता है। उसकी नैतिक विवेचना का सार चार आर्य सत्यों की धारणा में समाया हुआ है। उसके अनुसार दुःख है, दुःख का कारण (दुःख समुदय) है, दुःख के कारण का निराकरण सम्भव है और दुःख के कारण के निराकरण का मार्ग है। बौद्धदर्शन के इन चार आर्य सत्यों को दूसरे शब्दों में कहे तो बंधन (दुःख) और बंधन (दुःख) का कारण और बन्धन से विमुक्ति (मोक्ष) और बन्धन से विमुक्त का मार्ग इन्हीं चार बातों को जैन नैतिकता में क्रमशः बंध, आश्रव, मोक्ष और संवरनिर्जरा कहा गया है। जैन विचारणा का बंध बौद्ध विचारणा का दुःख है, आश्रव उस दुःख का कारण है, मोक्ष दुःख विमुक्ति है और संवर-निर्जरा दुःख-विमुक्ति का मार्ग है। निश्चय और व्यवहार में महत्वपूर्ण कौन?
यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि नैश्चयिक आचार अथवा नैतिकता के आन्तरिक स्वरूप और व्यवहारिक आचार या नैतिक आचरण के बाह्यस्वरूप में महत्वपूर्ण कौन है?
__ जैनदर्शन की दृष्टि से इस प्रशन का उत्तर यह होगा कि यद्यपि साधक की वैयक्तिक दृष्टि से नैतिकता का आन्तरिक पहलू महत्वपूर्ण है, लेकिन फिर भी सामाजिक दृष्टि से आचरण के बाह्य पक्ष की अवहेलना नहीं की जा सकती। जैन
जैन ज्ञानदर्शन
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