________________
(5) जीत-व्यवहार
___ यदि परिस्थिति ऐसी हो कि जिसमें किकर्तव्य या कर्म की शुभाशुभता के निश्चय का उपरोक्त कोई भी साधना सुलभ न हो और स्व-बुद्धि भी कुण्ठित हो गई हो अथवा कोई निर्णय देने में असमर्थ हों वहाँ पर लोकरूढ़ि के अनुसार आचरण करना चाहिए। यह लोकरूढ़ि के अनुसार आचरण करना जीत-व्यवहार है।
यहाँ सम्भवतः एक आक्षेप जैन विचारणा पर किया जा सकता है, वह यह है कि, आगम, श्रुत, एवं आज्ञा के पश्चात् स्व-विवेक को स्थान देकर मानवीय बुद्धि के महत्व का समुचित अंकन नहीं किया गया है। लेकिन यह मान्यता भ्रान्त है। वस्तुतः बुद्धि के जिस रूप को निम्न स्थान दिया गया है वह बुद्धि का वह रूप है जिसमें वासना या राग-द्वेष की उपस्थिति की सम्भावना बनी हुई है। सामान्य साधक जो वासनात्मक जीवन या राग द्वेष के ऊपर नहीं उठ पाया उसके स्व-विवेक के द्वारा किकर्तव्य मीमांसा में गलत निर्णय की सम्भावना बनी रहती, बुद्धि की इस अपरिपक्व दशा में यदि स्व-निर्णय का अधिकार प्रदान कर दिया जावे तो यथार्थ कर्तव्यपथ से च्युति की सम्भावना ही अधिक होती है। यदि मूल शब्द धारणा को देखें तो यह अर्थ और भी स्पष्ट हो जाता है। धारणा शब्द विवेक-बुद्धि या निष्पक्ष की अपेक्षा आग्रह-बुद्धि का सूचक है और आग्रह-बुद्धि में स्वार्थपरायणता या रूढ़ता के भाव ही प्रबल होते हैं, अतः ऐसी आग्रह बुद्धि को किकर्तव्यमीमांसा में अधिक उच्च स्थान प्रदान नहीं किया जा सकता। साथ ही, यदि धारणा या स्व-विवेक को अधिक महत्व दिया जावेगा तो नैतिक प्रत्ययों की सामन्यता या वस्तुनिष्ठता समाप्त हो जायेगी और नैतिकता के क्षेत्र में वैयक्तिकता का स्थान ही प्रमुख हो जावेगा। दूसरी ओर यदि हम देखें तो आज्ञा, श्रुत और आगम भी अबौद्धिक नहीं हैं वरन् उनमें क्रमशः बुद्धि की उज्ज्वलता या निष्पक्षता ही बढ़ती जाती है। आज्ञा देने के योग्य जिस गीतार्थ का निर्देश जैनागमों में किया गया है वह एक ओर देश, काल या परिस्थिति को यथार्थ रूप में समझता है, दूसरी ओर आगम ग्रन्थों का मर्मज्ञ भी होता है। वस्तुतः वह आदर्श (आगमिक आज्ञाएँ) एवं यथार्थ (वास्तविक परिस्थितियाँ) के मध्य समन्वय कराने वाला होता है। वह यथार्थ को दृष्टिगत रखते हुए आदर्श को इस रूप में प्रस्तुत करता है कि उस आदर्श को यथार्थ बनाया जा सके। गीतार्थ की आज्ञा नैतिक जीवन का एक ऐसा सत्य है जिसका आदर्श बनने की क्षमता रखता है। सरल शब्दों में कहें तो गीतार्थ की आज्ञाओं का पालन सदैव ही सम्भव होता है क्योंकि वे देश, काल एवं व्यक्ति की परिस्थिति को ध्यान में रख कर दी जाती है। श्रुत एवं आगम-परम्परा के उज्ज्वलतम आदर्शों को तथा उच्च एवं निष्पक्ष बुद्धिसम्पन्न महापुरूषों के निर्देशों को साधक के सामने प्रस्तुत करते हैं, जिनकी बौद्धिकता का महत्व सामान्य साधक की अपेक्षा सदैव ही अधिक होता है।
226
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान