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आधार पर होता है कि वह अपने परमात्मत्व को कहाँ तक पहचान पाया है। आत्मोपलब्धि (Self realization) या परम तत्व (Reality) का साक्षात्कार ही नैतिक जीवन का परमादर्श है और इस आदर्श के सन्दर्भ में मनोभावों का आकलन करना ही परमार्थिक या नैश्चयिक नैतिकता का प्रमुख कार्य है। व्यक्ति के आन्तरिक विचलन या संघर्ष को समाप्त कर विकार एवं मनोजगत में सांगसंतुलन या आन्तरिक समत्व को बनाए रखना नैश्चचियक आचारदर्शन का क्षेत्र है। व्यवहार नैतिकता का स्वरूप
व्यवहारिक नैतिकता का सम्बन्ध आचरण के उन बाह्य विधि-विधानों से है जिनके पालन की नैतिक साधक से अपेक्षा की जाती है। समाजदृष्टि या लोकदृष्टि ही व्यवहारिक नैतिकता के शुभाशुभत्व का आधार है। व्यवहार नैतिकता कहती है कि कार्य चाहे कर्ता के प्रयोजन की दृष्टि से शुद्ध हो, लेकिन यदि वह लोकविरुद्ध या जनसभावना के प्रतिकूल है तो उसका आचरण नहीं करना चाहिए।
___ वस्तुतः नैतिकता का व्यवहारदर्शन आचरण को सामाजिक सन्दर्भ में परखता है। यह आचरण शुभाशुभत्व के मापन की समाजसापेक्ष पद्धति है जो व्यक्ति के सम्मुख समाजिक नैतिकता (Social Morality) को प्रस्तुत करती है। इसका परिपालन वैयक्तिक साधना की दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना समाज या संघ व्यवस्था की दृष्टि से। यही कारण है वैयक्तिक साधना की परिपूर्णता के पश्चात् भी जैन आचारदर्शन समान रूप से इसके परिपालन को आवश्यक मानता रहा है।
आचरण के सारे विधि-विधान, आचरण की समग्र विविधताएँ, व्यवहार नैतिकता का विषय हैं। व्यवहार नैतिकता (Doing) क्रिया है, अतः आचरण कैसे करना इस तथ्य का निर्धारण करना व्यवहारिक नैतिकता का विषय है। गृहस्थ एवं संन्यास जीवन के सारे विधि-विधान जो व्यक्ति और समाज अथवा व्यक्ति और उसके बाह्य वातावरण के मध्य एक सांग संतुलन को बनाए रखने के लिए प्रस्तुत किये जाते हैं, व्यवहारिक नैतिकता का क्षेत्र है। नैतिकता के क्षेत्र में व्यवहार दृष्टि के पाँच आधार
व्यवहार दृष्टि से नैतिक समाचरण एक सापेक्ष तथ्य सिद्ध होता है। उसके अनुसार देशकाल, वैयक्तिक, स्वभाव, शक्ति और रुचि के आधार पर आचार के नियमों में परिवर्तन सम्भव है। यदि व्यवहारिक आचार में भिन्नता सम्भव है, तो प्रश्न होता है कि इस बात निश्चय कैसे किया जावे कि किस देश काल एवं परिस्थिति में कैसा आचरण किया जावे? आचरण का बाह्य स्वरूप क्या हो? जैन विचारकों ने इस प्रश्न का गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया है। वे कहते हैं कि निश्चय 224
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान