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________________ हमें इस सम्बन्ध में भी स्पष्ट रहना चाहिए कि नैतिक साध्य वह स्थिति है कि जहाँ आकर नैतिकता स्वयं समाप्त हो जाती है क्योंकि उसके आगे कोई पाना नहीं है, कोई चाहिए नहीं है और इसलिए कोई नैतिकता नहीं है। क्योंकि नैतिकता के लिए 'चाहिए' या 'आदर्श' आवश्यक है, अतः नैतिक साध्य उस स्थान पर स्थित है जहाँ तत्वमीमांसा और आचार दर्शन मिलते है, अतः नैतिक साध्य की व्याख्या शुद्ध निश्चयनय, विशुद्ध परामार्थिक दृष्टि से ही सम्भव है। वस्तुतः तो वह अवाच्य एवं निर्विकल्प अवस्था है। दूसरी ओर नैतिक साध्य पूर्णता की वह स्थिति है कि जब हम उस साध्य की भूमिका पर स्थित होकर विचार करते हैं, तो वहाँ साध्य, साधक और साधनापथ का अभेद हो जाता है क्योंकि जब आदर्श उपलब्ध हो जाता है तो आदर्श, आदर्श नहीं रहता और साधक, साधक नहीं रहता, न साधनापथ; साधनापथ ही रहता है। नैतिक पूर्णता की अवस्था में साधक, साध्य और साधनापथ का विभेद टिक नहीं पाता है। यदि साधक है तो उसका साध्य होगा और यदि कोई साध्य है तो फिर नैतिक पूर्णता कैसी? साध्य, साधक और साधना सापेक्षिक पद हैं, यदि एक है तो दूसरा है। साध्य के अभाव में न साधक, साधक होता है और न साधनापथ, साधनापथ। उस अवस्था में तो मात्र विशुद्ध सत्ता है, आत्मा है। यदि पूर्वावस्था की दृष्टि से उपचार रूप में कहना हो, तो कह सकते हैं कि उस दृष्टि से साध्य भी आत्मा है, साधक भी आत्मा है और ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप साधना पथ भी आत्मा है। तीसरे आचार दर्शन में पारमार्थिक दृष्टि या आन्तरिक नैतिकता की दृष्टि आचरण की शुभाशुता का निर्णय आचरण के बाह्य रूप से नहीं करती वरन् कर्ता के आन्तरिक प्रयोजन अथवा नैतिक साधना के आदर्श के सन्दर्भ में करती है। आचरण का दिखाई देने वाला रूप उसके लिए महत्त्वपूर्ण नहीं होता है। आचरण के विधि-विधानों से पारमार्थिक या नैश्चयिक आचार का कोई सम्बन्ध नहीं होता है, उसका सम्बन्ध तो विशुद्ध रूप के कर्ता की आन्तरिक मनोवृत्तियों से है। संक्षेप में नैतिकता की नैश्चयिक दृष्टि का सम्बन्ध वैयक्तिक नैतिकता (Individual morality) है। जैन विचारणा के अनुसार कषायों (अन्तरिक वासनाओं) का सम्बन्ध इसी नैश्चयिक नैतिकता से है। मनुष्य में वासना एवं आसक्ति या तृष्णा की अग्नि जिस मात्रा में शांत होती है, उसी मात्रा में वह नैश्चयिक आचार की दृष्टि से विकास की ओर बढ़ा हुआ माना जाता है। नैश्चयिक नैतिकता में क्रिया या आचरण का महत्व है मनोभावों का नैश्चयिक नैतिकता क्रिया (Doing) या आचरण की अवस्था नहीं, वरन् अनुभूति या साक्षात्कार की अवस्था है। इसमें शुभाशुभत्व का माप इस आधार पर नहीं होता कि व्यक्ति क्या करता है, वरन् इस जैन ज्ञानदर्शन 223
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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