SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ I सूत्रकृतांग में भी अस्ति और नास्ति की कोटियों की चर्चा हुई है। उसमें जिन्हें अस्ति कहना चाहिए, उनका निर्देश भी है । उसके अनुसार, जिन तत्त्वों को अस्ति कहना चाहिए, वे निम्न हैं- लोक, अलोक, जीव, अजीव, धर्म, अधर्म बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, क्रिया, अक्रिया, क्रोध, मान, माया, प्रेम, द्वेष, चतुरंत संसार, देव, देवी, सिद्धि, असिद्धि, सिद्धनिजस्थान, साधु, असाधु, कल्याण और पाप । इस विस्तृत सूची का निर्देश सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के द्वितीय अध्ययन में हुआ है। जहाँ जीव- अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, वेदना-निर्जरा, क्रिया-अधिकरण, बंध और मोक्ष का उल्लेख है। पं. दलसुखभाई मालवणिया का मानना है कि इनमें से वेदना, क्रिया और अधिकरण को निकालकर ही आगे नौ तत्त्वों की अवधारणा बनी होगी, जिसका निर्देश हमें समवायांग (9) और उत्तराध्ययन (27/14) में मिलता है। उन्हीं नौ तत्त्वों में से आगे चलकर ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी में उमास्वामी ने पुण्य और पाप को आस्रव के अन्तर्गत वर्गीकृत करके सात तत्त्वों की अवधारणा प्रस्तुत की । इन सात अथवा नौ तत्त्वों की चर्चा हमें परवर्ती सभी श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों के ग्रन्थों में मिलती है । इससे यह स्पष्ट है कि जैनों में सात, तत्त्वों की अवधारणा भी पंच - अस्तिकाय की अवधारणा से ही एक कालक्रम में विकसित होकर लगभग ईसा की तीसरी - चतुर्थ शती में अस्तित्व में आयी है। सातवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य जो मुख्य काम इन अवधारणाओं के संदर्भ में हुआ, वह यह कि उन्हें सम्यक् प्रकार से व्याख्यायित किया गया और उनके भेद-प्रभेद की विस्तृत चर्चा की गयी । षट्जीवनिकाय की अवधारणा पंचास्तिकाय के साथ-साथ षट्जीवनिकाय की चर्चा भी जैन ग्रंथों में उपलब्ध है। ज्ञातव्य है कि पंचास्तिकाय में जीवास्तिकाय के विभाग के रूप में षट्जीवनिकाय की यह अवधारणा विकसित हुई है । षट्जीवनिकाय निम्न हैंपृथ्वीकाय, अपकाय, वायुकाय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय । पृथ्वी आदि के लिए 'काय' शब्द का प्रयोग प्राचीन है । दीर्घनिकाय में अजितकेशकम्बलिन् के मत को प्रस्तुत करते हुए- पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय और वायुकाय का उल्लेख हुआ है। उसी ग्रंथ में पकुधकच्चायन के मत के संदर्भ में पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, सुख, दुःख और जीव- इन सात कायों की चर्चा है । इससे यह फलित होता है कि पृथ्वी, अप आदि के लिये काय संज्ञा अन्य श्रमण परम्पराओं में प्रचलित थी । यद्यपि काय कौन-कौन से और कितने हैं- इस प्रश्न को लेकर उनमें परस्पर मतभेद थे । जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 8
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy