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अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल इन पाँच को अचेतन द्रव्य और जीव को चेतन- द्रव्य माना गया है। मूर्त और अमूर्त्त द्रव्यों की अपेक्षा से जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल- इन पाँच को अमूर्त द्रव्य और पुद्गल को मूर्त द्रव्य माना गया है।
जैसा कि हम पूर्व में कह चुके हैं कि विद्वानों ने यह माना है कि जैन-दर्शन में द्रव्य की अवधारणा का विकास न्याय-वैशेषिक दर्शन से प्रभावित है। जैनाचार्यों ने वैशेषिक दर्शन की द्रव्य की अवधारणा को अपनी पंचास्तिकाय की अवधारणा से समन्वित किया है, अतः जहाँ वैशेषिक दर्शन में नौ द्रव्य माने गए थे, वहाँ जैनों ने पंचास्तिकाय के साथ काल को जोड़कर मात्र छः द्रव्य ही स्वीकार किए। इनमें से भी जीव (आत्मा) आकाश और काल - ये तीन द्रव्य दोनों ही परम्पराओं में स्वीकृत रहे । पंचमहाभूतों, जिन्हें वैशेषिक दर्शन में द्रव्य माना गया हैं, में आकाश को छोड़कर शेष पृथ्वी, अप (जल), तेज (अग्नि) और मरुत (वायु) - इन चार द्रव्यों को जैनों ने स्वतंत्र द्रव्य न मानकर अजीव द्रव्य के ही भेद माना है । दिक् और मन- इन दो द्रव्यों को जैनों ने स्वीकार नहीं किया, इनके स्थान पर उन्होंने पाँच अस्तिकायों में से धर्म, अधर्म और पुद्गल - ऐसे अन्य तीन द्रव्य निश्चित किए। ज्ञातव्य है कि जहाँ अन्य परम्पराओं में पृथ्वी, अप्, वायु और अग्नि-इन चारों को जड़ माना गया, वहाँ जैनों ने पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय और वायुकाय के रूप में इन्हें चेतन माना है। इस प्रकार, जैनदर्शन की षट्द्रव्य की अवधारणा अपने आप में मौलिक है। अन्य दार्शनिक परम्पराओं से उसका आंशिक साम्य ही देखा जाता है । यद्यपि इस सम्बन्ध में मेरा दृष्टिकोण थोड़ा भिन्न है । मेरा मानना है कि जब तक ये चारों जब तक किसी जीव के काय (शरीर) रूप में है, तब तक ही सजीव होते हैं । इसका मूल कारण यह है कि उन्होंने इस अवधारणा का विकास अपनी मौलिक पंचास्तिक की अवधारणा से किया है ।
नवतत्त्व की अवधारणा
पंचास्तिकाय और षट्जीवनिकाय की अवधारणा के समान ही नवतत्त्वों की अवधारणा भी जैनपरम्परा की अपनी मौलिक एवं प्राचीनतम अवधारणा है। इस अवधारणा के मूल बीज आचारांग जैसे प्राचीनतम आगम में भी मिलते हैं । उसमें सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पाप, साधु, असाधु, सिद्धि (मोक्ष), असिद्धि (बंधन) आदि के अस्तित्त्व को मानने वाली ऐकान्तिक विचारधाराओं के उल्लेख हैं ( 1/7/1/2000)। इस उल्लेख में आस्रव-संवर, पुण्य-पाप तथा बंधन - मुक्ति के निर्देश हैं । वैसे आचारांगसूत्र में जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष- ऐसे नवों तत्त्वों के उल्लेख प्रकीर्ण रूप से तो मिलते हैं, किन्तु एक साथ ये नौ तत्त्व हैंऐसा उल्लेख नहीं है ।
जैन तत्त्वदर्शन
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