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प्रमेय का स्वरूप एवं समीक्षा
जहाँ तक प्रमेय का प्रश्न हैं, जैन दर्शन में उत्पादव्ययघ्रौव्यलक्षणयुक्त सामान्य, विशेषात्मक और द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु तत्त्व या अर्थ को ही समस्त प्रमाणों का विषय माना है। जैन दार्शनिक बौद्ध दार्शनिकों के समान अलग-अलग प्रमाणों के लिए अलग-अलग प्रमेयों की व्यवस्था नहीं करते हैं। वस्तुतः जहाँ बौद्ध प्रमाणव्यवस्थावादी हैं वहाँ जैन प्रमाणसंप्लववादी हैं। बौद्ध दर्शन में प्रमेय दो हैं1. स्वलक्षण और 2. सामान्य लक्षण । पुनः उनके अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय स्वलक्षण अर्थ अर्थात् परमार्थसत् है और अनुमान प्रमाण का विषय सामान्यलक्षण या संवृत्तिसत् है। यद्यपि बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति स्वलक्षण को ही एक मात्र प्रमेय मानते हैं, क्योंकि उसी में अर्थक्रियासामर्थ्य है। जैन दार्शनिकों ने धर्मकीर्ति के दर्शन को विज्ञानाद्वैतवाद माना है, विज्ञानाद्वैतवादी होने के कारण धर्मकीर्ति के मत में परमार्थसत् तो एक ही हैं अतः प्रमेय भी भिन्न-भिन्न नहीं हो सकते हैं, यदि सामान्यलक्षण को प्रमेय कहा जायेगा तो वह तो काल्पनिक और अवस्तु रूप है, वह प्रमेय नहीं हो सकता है। पुनः जैन दार्शनिकों का कहना है प्रमेय या अर्थ जब भी प्रतिभासित होता है, वह सामान्य विशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक ही होता है। द्रव्य से रहित पर्याय और पर्याय से रहित द्रव्य की अनुभूति नहीं है, उसी प्रकार सामान्य से रहित विशेष और विशेष से रहित सामान्य की भी कहीं अनुभूति नहीं है। व्यष्टि में समष्टि और समष्टि में व्यष्टि अनस्यूत हैं, अतः बौद्ध दार्शनिकों का सामान्यलक्षण प्रमेय नहीं हो सकता, क्योंकि वह वस्तुसत् या स्वलक्षण नहीं है। पुनः अकलंक का कहना है कि मात्र स्वलक्षण भी प्रमेय नहीं हो सकता, क्योंकि उसका भी अलग से कहीं बोध नहीं होता है और न वह अभिधेय होता है। अतः प्रमाण का विषय या प्रमेय तो सामान्यविशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु ही हैं। पुनः बौद्धों ने जिसे स्वलक्षण कहा उसे या तो क्षणिक मानना होगा या नित्य मानना होगा, किन्तु एकांत क्षणिक और एकांत नित्य में भी अर्थक्रिया सम्भव नहीं हैं, जबकि स्वलक्षण को अर्थक्रिया में समर्थ होना चाहिए, अतः जैन दार्शनिकों का कथन है कि नित्यानित्य या उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक वस्तु ही प्रमेय हो सकती है। यहाँ ज्ञातव्य है कि बौद्ध दार्शनिक भी परमतत्त्व, परमार्थ या स्वलक्षण को न तो नित्य मानते हैं और न अनित्य मानते हैं। जैन और बौद्ध दर्शन में मात्र अन्तर यह है कि जहाँ जैन दर्शन विधिमुख से उसे नित्यानित्य, सामान्यविशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक कहता है, वहाँ बौद्ध दर्शन उसके संबंध में निषेधमुख से यह कहता है कि वह सामान्य भी नहीं है आदि। प्रमेय के स्वरूप के संबंध में दोनों में जो अन्तर है वह प्रतिपादन की विधिमुख और निषेधमुख शैली का है। इस प्रकार दोनों दर्शनों मे प्रमाण और प्रमेय के स्वरूप के संबंध में क्वचित् समानताएँ और क्वचित् भिन्नतायें हैं।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान