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प्रमाणों की संख्या को लेकर जैन परम्परा में हमें तीन प्रकार की अवधारणाएं मिलती हैं। सर्वप्रथम आगम युग में जैन परम्परा में चार प्रमाण स्वीकार किए गए थे। उसके पश्चात् तत्त्वार्थसूत्र (2री-3री शती) में प्रमाण के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ऐसे दो भेद किये गये। सिद्धसेन दिवाकर (चौथी शती) ने अपने न्यायावतार में आगमिक युग के औपम्य को अलग करके तीन प्रमाण ही स्वीकार किए। तत्त्वार्थसूत्र में पांच ज्ञानों को प्रमाण कहकर मति और श्रुत ज्ञान को परोक्ष प्रमाण के रूप में तथा अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया था। उमास्वामि का प्रमाणवाद वस्तुतः आगमिक पंच ज्ञानवाद से प्रभावित है। जबकि सिद्धसेन की प्रमाण व्यवस्था आगामिक एवं अन्य दर्शनों के प्रमाणवाद से प्रभावित है। सिद्धसेन के पश्चात् और अकलंक के पूर्व तक हरिभद्र आदि जैन आचार्य प्रत्यक्ष, अनुमान आगम ये तीन प्रमाण ही मानते रहे, किन्तु लगभग आठवीं शताब्दी में अकलंक ने सर्वप्रथम स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क को प्रमाण मानकर जैन दर्शन में प्रमाणों की संख्या छः निर्धारित की। अकलंक ने अपने ग्रंथों में स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को स्वतंत्र प्रमाण सिद्ध करने के लिए अनेक तर्क भी प्रस्तुत किए हैं। उनके पश्चात् सिद्धर्षि, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र आदि जैन आचार्यों ने अपनी-अपनी कृतियों में विस्तार से स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क का स्वतंत्र प्रमाण्य स्थापित किया है। विस्तार भय से यहाँ उन तर्कों को प्रस्तुत करना संभव नहीं है। फिर भी यह ज्ञातव्य है कि अकलंक, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसरि आदि ने बौद्धाचार्यों द्वारा स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को प्रमाण नहीं मानने का अनेक युक्तियों से खण्डन किया है।
जहाँ तक आगम प्रमाण का प्रश्न है, बौद्ध वैशेषिकों के समान ही इसका अंतर्भाव अनुमान प्रमाण में करते हैं। जबकि जैन उसे स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं, किन्तु यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जैन दार्शनिकों के समान ही धर्मकीर्ति भी शब्द को पौरुषेय मानते हैं। फिर भी वे उसे स्वतंत्र प्रमाण नहीं मानते। जबकि जैन दार्शनिक अकलंक, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र आदि ने आगम को स्वतंत्र प्रमाण मानने के संदर्भ में अनेक युक्तियाँ दी हैं, साथ ही बौद्धों द्वारा आगम को अनुमान में समाहित करने के दृष्टिकोण की विस्तृत समीक्षा भी की है। जैन दार्शनिकों का यह वैशिष्ट्य है कि उन्होंने स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और आगम का परोक्षप्रमाण में अन्तर्भाव करके भी प्रत्येक को स्वतंत्र रूप से प्रमाण माना है। सम्पूर्ण भारतीय दर्शनों में स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को स्वतंत्र रूप से प्रमाण का स्थान देना केवल जैनदर्शन का ही वैशिष्ट्य है। अन्य दर्शनों ने इनकी उपयोगिता को तो स्वीकार किया, किन्तु उन्हें स्वतंत्र प्रमाण होने का गौरव नहीं दिया। जैन ज्ञानदर्शन
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