SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में उपस्थित अर्थ को ही अपना विषय बनाती है। अतः उसके आधार पर त्रैकालिक व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान सम्भव नहीं है। पुनः ईहा प्रत्यक्ष के विषय को अर्थात् मूर्त वस्तु ज्ञान विषय बनाती है, किन्तु व्याप्ति ज्ञान या कार्य कारण भाव या जाति के प्रत्यय अमूर्त है, अतः वे ऐन्द्रिक ज्ञान के विषय नहीं बनते। तर्क एवं ईहा के स्वरूप में भी अन्तर है- (1) सर्वप्रथम ईहा विशेष का ज्ञान है जबकि तर्क सामान्य का ज्ञान है, (2) दूसरे ईहा वस्तु के गुण धर्मों का ज्ञान है जबकि तर्क सम्बन्धों का ज्ञान है, (3) तीसरे ईहा निर्णय के पूर्व की या संशय और निर्णय के मध्य निर्णयोन्मुख दोलन की अवस्था है जबकि तर्क निर्णयात्मक है, (4) चौथे ईहा ऐन्द्रिक और बौद्धिक ज्ञान है जबकि तर्क में अन्तः प्रज्ञा का तत्त्व होता है, (5) पाँचवां ईहा वर्तमान कालिक ज्ञान है जबकि तर्क त्रैकालिक ज्ञान है। अतः ईहा और तर्क में पर्याप्त अन्तर है क्योंकि तर्क व्याप्ति-ग्राहक है और ईहा व्याप्ति ग्राहक नहीं है। अतः तर्क को ईहा से स्वतन्त्र प्रमाण इसलिए मानना पड़ा कि ईहा का अन्तर्भाव तो लौकिक प्रत्यक्ष में होता है जबकि तर्क का अन्तर्भाव परोक्ष ज्ञान में किया गया है। अतः दोनों को अलग-अलग प्रमाण मानना आवश्यक है। ईहा का प्रतीकात्मक स्वरूप भी तर्क से भिन्न है। ईहा के पूर्व जो संशय होता है वह कार्य कारण, अबिनाभाव या आपादान के सम्बन्ध में नहीं होकर केवल विधेय के सम्बन्ध में होता है। यह स्वर स्त्री का है या पुरुष का? तथा यह स्तम्भ है या पुरुष ऐसे वाक्यों में संशय इस बारे में भी होता है कि विधेय के इन वैकल्पिक वर्गों में उद्देश्य किस वर्ग का सदस्य है, अतः ईहा का जो सुझावात्मक निर्णय होता है वह आपादान के बारे में न होकर वर्ग सदस्यता के बारे में होता है। उसका प्रतीकात्मक रूप होता है - उ, सं (वि'Vवि) .... संशय वि, ...विकल्प निषेध -------- ..उc सं (वि.) . .सम्भावित निर्णय (ईहा) जबकि - उ = उद्देश्य वि = विधेय सं = सम्भावना c= विधेय सम्बन्ध या सदस्यता = निषेध इस प्रकार प्रतीकात्मक दृष्टि से विचार करने पर तीनों की भिन्नता स्पष्ट हो जाती है। व 04. 172 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy