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- It is not also ordinary perception because there is no Indriya Sannikarsha with smoke in all the cases उन्होंने इस बात को भी स्पष्ट किया है कि अमूर्त जाति सम्बन्ध के ज्ञान के लिए ऐसी ही अनानुभविक पद्धति आवश्यक है। जैन दार्शनिकों ने तर्क को एक अतीन्द्रिय अर्थात् ऐन्द्रिक अनुभवों पर आधारित किन्तु उससे पार जाने वाला, उनका अतिक्रमण करने वाला मानकर इस आवश्यकता की पूर्ति कर ली है। डॉ. प्रणवकुमार सेन ने विश्व दर्शन परिषद् के देहली अधिवेशन में प्रस्तुत अपने लेख में इस बात का स्पष्ट संकेत किया है। समस्या चाहे आगमन की हो या निगमन की उन्हें बिना अन्तःप्रज्ञात्मक आधार के सुलझाया नहीं जा सकता है (देखिए Knowledge, Culture and Value, p.41-50 )। जैन दार्शनिकों के अनुसार व्यक्ति और जाति में कथचित् अभेद है, अतः तक अपनी अन्तः प्रज्ञात्मक शक्ति के द्वारा विशेष के प्रत्यक्षीकरण के समय ही सामान्य को भी जान लेता है और इस प्रकार विशेषों के प्रत्यक्ष के आधार पर सामान्य वाक्य की स्थापना कर सकती है। यह कार्य अन्तः प्रज्ञा या तर्क के अतिरिक्त प्रत्यक्ष, अनुमान आदि किसी भी अन्य प्रमाण के द्वारा सम्भव नहीं है। ईहा का स्वरूप और तर्क से उसकी भिन्नता
यह सत्य है कि जैन दार्शनिकों ने प्रारम्भ में ईहा और तर्क को पर्यायवाची माना था, किन्तु प्रमाण युग में ईहा और तर्क दोनों स्वतन्त्र प्रमाण मान लिये गये थे। यद्यपि यह प्रश्न स्वतन्त्र रूप से विचारणीय अवश्य है कि जैन दार्शनिक ने ईहा के स्वरूप को जिस रूप में प्रस्तुत किया है, उस रूप में क्या उसे प्रमाण माना जा सकता है? क्योंकि ईहा निर्णयात्मक ज्ञान नहीं होकर तो मात्र ज्ञान प्रक्रिया (Process of knowldege) है। जैन दर्शन में प्रत्यक्ष से अनुमान तक की ज्ञान प्रक्रिया का क्रम इस प्रकार है -
ऐन्द्रिक संवेदन....अवग्रह....संशय....ईहा....आवाय
धारणा....स्मृति....प्रत्यभिज्ञा....तर्क....अनुमान इसमें संशय और धारणा को छोड़कर शेष सभी को प्रमाण माना है- यद्यपि ये किस अर्थ में प्रमाण है यह एक अलग प्रश्न है- जिस पर किसी स्वतन्त्र निबन्ध में विचार किया जा सकता है, किन्तु मैं अभी इस प्रश्न को हाथ में लेना नहीं चाहूँगा। यहाँ मूल प्रश्न यह है कि ईहा स स्वतन्त्र तर्क को प्रमाण क्यों मानना पड़ा-मेरी दृष्टि में इसका मूल आधार व्याप्ति ग्रहण की समस्या ही रहा होगा। अनुमान के लिए व्याप्ति ग्रहण एक अनिवार्य पूर्व शर्त (Pre-condition) है और ईहा से व्याप्ति ग्रहण सम्भव नहीं था। प्रमाण मीमांसा में ईहा की चर्चा के प्रसंग में यह प्रश्न उठाया गया था कि यदि ईहा और तर्क एक ही अर्थ के द्योतक हैं, तो फिर ईहा से पृथक तर्क को पृथक प्रमाण क्यों माना गया? उसके उत्तर में कहा गया कि ईहा वर्तमान
जैन ज्ञानदर्शन
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